असंतुलित होते नगर

मसलन, नगर पर्यावरण की सुरक्षा के लिए चुनौती बन रहे हैं, क्योंकि हरित क्षेत्र को नगर के विकास के लिए समाप्त किया जा रहा है। ऐसे में जलवायु परिवर्तन ने अनेक नगरों के अस्तित्व को चुनौती दी है, खासकर समुद्र के किनारे बसे नगर अब मानव निर्मित आपदाओं से अछूते नहीं हैं।

Update: 2022-11-29 05:44 GMT

ज्योति सिडाना: मसलन, नगर पर्यावरण की सुरक्षा के लिए चुनौती बन रहे हैं, क्योंकि हरित क्षेत्र को नगर के विकास के लिए समाप्त किया जा रहा है। ऐसे में जलवायु परिवर्तन ने अनेक नगरों के अस्तित्व को चुनौती दी है, खासकर समुद्र के किनारे बसे नगर अब मानव निर्मित आपदाओं से अछूते नहीं हैं।

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक मौजूदा वक्त में दुनिया की आधी आबादी शहरों में रह रही है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2050 तक भारत की आधी आबादी महानगरों और शहरों में रहने लगेगी और तब तक विश्व की आबादी का सत्तर फीसद हिस्सा शहरों में रह रहा होगा। एक दूसरी संस्था आक्सफोर्ड इकोनामिक के अध्ययन के मुताबिक 2019 से लेकर 2035 के बीच सबसे तेजी से बढ़ने वाले शीर्ष दस शहर भारत के होंगे।

विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत का शहरीकरण अघोषित और अस्त-व्यस्त है। प्रदूषित झीलें, नदियां, तालाब, ट्रैफिक जाम, बारिश में उफनते गंदे नाले, नगरों में बढ़ता वायु प्रदूषण, सड़क दुर्घटनाएं, आवारा पशुओं की सड़कों पर भीड़ के कारण होने वाली दुर्घटनाएं, बिजली और पानी का संकट, यातायात के संसाधनों का बेतरतीब होना, नगरों में फैली गंदगी, गंदी बस्तियों का विस्तार आदि ऐसे मुद्दे हैं, जो देश के शहरीकरण की वास्तविक स्थिति को बयान करते नजर आते हैं।

शहरीकरण का नकारात्मक प्रभाव कहीं न कहीं विकास और निर्माण परियोजनाओं को संदेह के घेरे में लाता है। नगरीय स्वायत्तशासी संस्थाओं में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और शीर्षस्थ संस्था नगर निगम कहलाती है। सामान्यत: बड़े शहरों या महानगरों में नगर निगम की स्थापना की जाती है, ताकि बिजली, पानी, सड़क, यातायात, संचार, स्वच्छता, पर्यावरण संरक्षण, जल निकास व्यवस्था, नालियां, सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण तथा रखरखाव, पार्क, खेल के मैदान, पशुशाला निर्माण आदि कार्यों का सुचारु संचालन हो सके। वैश्वीकरण के बाद नगरीय विकास समावेशी विकास की एक आवश्यक शर्त बन कर उभरा है। पर नगरों के असमान विकास, महानगरों का असुरक्षित परिवेश और नगरीय संस्कृति में उत्पन्न होते तनाव नगरीय विकास की पुनर्समीक्षा के लिए हमें बाध्य करते हैं।

देश के कई राज्यों में बढ़ती नगरीय जनसंख्या की समस्याओं का व्यवस्थित तरीके से प्रबंधन करने के उद्देश्य से नगर निगम संस्थानों को विभाजित करने का फैसला लिया गया। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर राजस्थान में भी कोटा, जोधपुर और जयपुर शहर के नगर निगमों को दो भागों में विभाजित किया गया था। ऐसा करने के पीछे नगरीय विकास विभाग का कहना था कि इन तीनों शहरों में जनसंख्या दस लाख से ज्यादा हो गई है। ऐसे में वार्ड बड़ा होने से पार्षद अपने क्षेत्र में विकास कार्य बेहतर तरीके से नहीं करवा सकते हैं।

उदाहरण के लिए कोटा नगर निगम का विभाजन कोटा उत्तर और कोटा दक्षिण के रूप में किया गया। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह विभाजन विकेंद्रीकरण का एक स्पष्ट उदाहरण है, जिसका उद्देश्य कोटा के हर क्षेत्र में विकास का समान रूप से विस्तार करना है। तेज गति से बढ़ते हुए नगर का लाभ सभी को मिल सके और नगर में समन्वित विकास का माडल मूर्त रूप ले सके, इसके लिए यह विभाजन एक सकारात्मक कदम कहा जा सकता है। पर सवाल है कि क्या वास्तव में यह विभाजन संतुलित विकास कर पाया है, इसका विश्लेषण किया जाना आवश्यक है। विकास में अगर निजी उद्देश्य (राजनीतिक या प्रशासनिक) शामिल हों जाते हैं, तो विकास का कोई भी माडल सकारात्मक परिणाम देने में सक्षम नहीं हो सकता।

अनेक आरोपों-प्रत्यारोपों के बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कोटा की जो सूरत बदल रही है, वह आने वाले समय में कोटा को राजस्थान के एक खूबसूरत शहर के रूप में स्थापित करेगी। हाल ही में स्वच्छता सर्वेक्षण 2022 की रैंकिंग जारी की गई, जिसमें कोटा दक्षिण 141वें और कोटा उत्तर 364वें पायदान पर रहा। इस असमानता और असंतुलित विकास को जन सहभागिता और जनचेतना के माध्यम से दूर किया जा सकता है।

दोनों निगमों को अपने-अपने क्षेत्र की समस्याओं और जरूरतों को समझ कर तथा जनता से संवाद करके विकास नीतियों को तय करना होगा। विकास तो हो रहा है, लेकिन अगर विकास का प्रारूप जनता से संवाद करके तय किया जाए कि वह किस तरह का विकास चाहती है, तो राज्य में जमीनी लोकतंत्र को वास्तविक रूप दिया जा सकता है। इसके लिए राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों की प्रतिबद्धता और जन सहभागिता महत्त्वपूर्ण कदम कही जा सकती है। तब नगर निगम का यह विभाजन जन कल्याण और समस्याओं के समाधान की दिशा में सकारात्मक भूमिका निभा सकता है।

इसके साथ ही असंतुलित और अनियोजित शहरी विकास ने देश के समक्ष अनेक चुनौतियां उत्पन्न की हैं। मसलन, नगर पर्यावरण की सुरक्षा के लिए चुनौती बन रहे हैं, क्योंकि हरित क्षेत्र को नगर के विकास के लिए समाप्त किया जा रहा है। ऐसे में जलवायु परिवर्तन ने अनेक नगरों के अस्तित्व को चुनौती दी है, खासकर समुद्र के किनारे बसे नगर अब मानव निर्मित आपदाओं से अछूते नहीं हैं।

दूसरा, नगरों में कच्ची बस्तियां बड़ी संख्या में स्थापित हुई हैं, जहां रहने वाले लोग नगरीय जनसंख्या से संबंधित उच्च और मध्यवर्ग की अनेक आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, पर खुद न केवल गरीबी के शिकार, बल्कि आवश्यक संरचनात्मक सुविधाओं से वंचित हैं। साथ ही तीव्र प्रौद्योगिकीय विकास ने नगरों में अनेक परंपरागत व्यवसाय करने वाले समूहों के लिए खतरा उत्पन्न किया है।

तीसरा, सड़कों का निर्माण नगरीय क्षेत्र में भ्रष्टाचार का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। पहली बारिश के बाद ही नवनिर्मित सड़कें प्रशासनिक और राजनीतिक प्रबंधन की पोल खोल देती हैं। चौथा, अपराध की दृष्टि से भी नगर तुलनात्मक रूप से अधिक असुरक्षित हैं। लोगों के बीच किसी प्रकार के संवाद का भी अभाव देखा जाता है, इसलिए पड़ोस में क्या हो रहा है, लोगों को खबर भी नहीं होती। या कहें कि भावनाशून्यता, संवादहीनता और व्यक्तिवादिता की प्रवृत्ति नगरीय जीवन का अहम हिस्सा बन चुकी है।

ऐसे में सवाल है कि क्या स्मार्ट शहर अत्याधुनिक होंगे, जिनमें निम्न वर्ग या हाशिये के वर्ग का कोई स्थान नहीं होगा और केवल वही लोग निवास करेंगे, जिन्हें आधुनिक प्रौद्योगिकी की विशेषज्ञता हासिल है? क्या ये शहर बहुमंजिला इमारतों के ऐसे जंगल होंगे, जिनमें व्यक्तिवादिता का मूल्य निवास करता है और आमने-सामने के संबंधों के स्थान पर मोबाइल और कम्प्यूटर वैचारिक आदान-प्रदान का केंद्र बनेंगे। ऐसा लगता है कि शहरों में केवल शक्तिशाली ही रह सकता है या फिर यों कहें कि शक्तिशाली बन कर ही रहा जा सकता है।

इन तमाम पहलुओं पर विचार करने के बाद कहा जा सकता है कि यह आवश्यक नहीं कि जो शहर तकनीकी दृष्टि से उन्नत या अधिक विकसित हों, वे स्मार्ट सिटी भी हों? इसी तरह जो नागरिक आधुनिक तकनीक के ज्ञान से युक्त हों वे स्मार्ट नागरिक भी हों? नगरीय जनसंख्या में तीव्र गति से होने वाली वृद्धि यहां उपलब्ध संसाधनों पर अत्यधिक दबाव उत्पन्न कर रही है, जिसके कारण भोजन, पानी, ऊर्जा, जलवायु परिवर्तन, रोजगार आदि क्षेत्र चुनौती प्राप्त करते नजर आ रहे हैं। इसलिए आज आवश्यकता इस बात की है कि उपलब्ध संसाधनों को प्रभावी तरीके या स्मार्ट तरीके से प्रयुक्त करना आना चाहिए, ताकि सतत विकास की अवधारणा को मूर्त रूप दिया जा सके।

स्मार्ट सिटी की अवधारणा को मूर्त रूप देने के लिए उपर्युक्त सभी पक्षों पर गहन चिंतन की आवश्यकता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि स्मार्ट सिटी इसलिए विकसित कर रहे हैं कि पूंजीवाद और तकनीकी-पूंजीवाद को निरंतरता मिल सके? कहीं कारपोरेट जगत को ज्यादा से ज्यादा लाभ दिलाने के लिए तो हम ऐसा नहीं कर रहे है? कहीं ऐसा न हो कि शहर और स्मार्ट शहर के बीच के संबंध केंद्र और परिधि के संबंध या विकसित और अविकसित नगर के संबंध बन कर रह जाएं?


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