लॉकडाउन में क्रिसमस

ब्रिटेन क्रिसमस के दिन खुला हुआ नहीं होगा।

Update: 2020-12-24 09:53 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। सोचें, ब्रिटेन क्रिसमस के दिन खुला हुआ नहीं होगा। ऐसे ही जर्मनी भी दस जनवरी तक लॉकडाउन में है। यूरोप के तमाम देशों में, अमेरिका में क्रिसमस और नए साल के स्वागत में वह कोई हुजूम नहीं होगा, वह उत्सव नहीं होगा जो इन अमीर, वैभवशाली ईसाई देशों की शान है, परंपरा है, जीने का अंदाज है। हां, क्रिसमस और नए साल का पखवाड़ा वर्ष का वह वक्त होता है जब दुनिया जश्न, उत्सव, त्योहार खरीदारी, सैर-सपाटे में सर्वाधिक मगन रहती है। फुरसत-आनंद सुख में तरबतर होती है। मतलब दुनिया के ये पंद्रह दिन हमारी दीपावली-दुर्गापूजा से असंख्य गुना अधिक उमंग-उत्साह-रोशनी व खुशी से पृथ्वी को लकदक बनाए होते हैं।

आखिर कुछ भी हो ईसाई समाज-सभ्यता जीवन जीने की संपन्नता-समृद्धि में शेष धर्मों से कई गुना अधिक वैभवता लिए हुए है तो बड़े लोगों के बड़े दिन भी ठाठ-बाट से ही मनाए जाएंगे। कोई अनुमान नही है लेकिन क्रिसमस-नववर्ष के बीस दिनों के आयोजनों, खर्च का यदि हिसाब लगे तो पता पड़ेगा कि साल के 365 दिनों में इन बीस दिनों का वैश्विक खर्चा बीस-तीस प्रतिशत तो बैठेगा ही। इसलिए कल्पना ही दहला देने वाली है कि ब्रिटेन, जर्मनी सहित कई देश क्रिसमस, नए साल के दिन तालाबंद हैं। चर्च की घंटियां बजेंगी लेकिन लोग चर्च में नहीं होंगे। घर में तालाबंद हो कर क्रिसमस मनाएंगे। तभी सोचें देश, समाज, आर्थिकी पर इस क्रिसमस के वीराने का क्या असर होगा?


जाहिर है सब कोविड-19 वायरस के चलते है। सवाल है कि ये ईसाई देश क्यों इतने छुई-मुई हैं? इस्लामी देशों ने बिना महामारी की चिंता किए रमजान-ईद का महीना गुजारा, सामूहिक नमाज पढ़ी। हम हिंदुओं ने भी बेखटके दुर्गापूजा-दीपावली मनाई तो ब्रिटेन-यूरोप क्यों ऐसे छुईमुई, जो क्रिसमस लॉकडाउन में मना रहे हैं? क्या जवाब है? शायद वक्त के अनुभव से जवाब निकले। मैं महामारी का वक्त लंबा खींचता बूझ रहा हू्।
जैसे इतिहास में पहले हुआ कि तीन-पांच साल की अवधि महामारी से विश्व त्रस्त रहा तो इस महामारी में कोरोना वायरस की वैक्सीन भले साल के भीतर आ गई है लेकिन महामारी टीका लगने के साथ तुरंत खत्म नहीं होनी है। ब्रिटेन में वायरस के नए स्टेन से जो हड़कंप मचा है वह भी अपनी इस धारणा की पुष्टि है कि इस महामारी से मानवता की मुक्ति में सालों लगेंगे।

मतलब जैसे उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के दूसरे दशक में हुआ, स्पेनिश फ्लू की जो आपदा थी उससे जितने साल बरबादी-चिंता के हुए वैसा फिर होता हुआ लगता है। इस हकीकत पर गौर करना चाहिए कि स्पेनिश फ्लू के पूरी दुनिया में प्रसार में जितना वक्त लगा था उससे बहुत कम वक्त में कोविड-19 का वायरस वैश्विक हुआ है। ऐसा परिवहन-आवाजाही के वैश्विक नेटवर्क के सुपरजेट रफ्तार होने से है तो शायद इस वायरस की प्रकृति से भी है।
साल के भीतर ही वायरस पृथ्वी के सातों महाद्वीपों में जा पहुंचा। बर्फीले अंटार्कटिक महाद्वीप में भी मरीज हैं तो यह म्यूटेट हो कर लगातार बदलता हुआ भी है। ब्रिटेन में वायरस के नए वेरिएंट की जो खबर है उस अनुसार सितंबर में वायरस की इस नई किस्म की भनक लगी और नवंबर में वहां एक-चौथाई संक्रमण इसकी वजह से था तो दिसंबर मध्य आते-आते दो-तिहाई संक्रमण इस नई किस्म की वजह से हुआ। यह पहले के मुकाबले 70 प्रतिशत अधिक तेज रफ्तार से फैलता हुआ है। इसलिए ब्रिटेन, यूरोप में पैनिक, घबराहट हुई कि लॉकडाउन करो नहीं तो संक्रमण घर-घर पहुंचा हुआ होगा।

हम सोच सकते हैं अमीर देश, अमीर लोग ज्यादा घबराते हैं! ब्रिटेन को भारत से सीखना चाहिए। भारत भले संक्रमण में नंबर दो याकि संक्रमित होने का आंकड़ा करोड़ पार है और मृत्यु का आंकड़ा डेढ़ लाख के करीब पहुंच रहा है लेकिन वायरस से क्या कहीं घबराया हुआ है? वह है कहां! वह तो जीवन का हिस्सा हो गया है। तभी वर्ष 2020 दुनिया में यह फर्क बनवा कर जाएगा कि दुनिया में एक आबादी संवेदनशील इंसानों की है तो दूसरी आबादी असंवेदनशील इंसान रूपी उन भेड़-बकरियों की है, जिन्हें भान ही नहीं होता कि महामारी में एक करोड़ लोग संक्रमित हो गए है तो इससे कितने परिवारों के संत्रास से गुजरने की दास्तां बनी हुई है!

ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मनी, यूरोपीय देश याकि तमाम विकसित देशों ने फरवरी से दिसंबर के 11 महीने जिस नाजुकता, जैसी चिंताओं और खौफ में गुजारे हैं वह इनकी छुई-मुई तासीर से है। यह छुईमुईपना ही संवेदनशीलता है, राष्ट्र-राज्य-कौम-धर्म का एक-एक नागरिक की चिंता में मरना-खपना है। इन देशों में लोग नागरिक हैं न कि भीड़ और भेड़-बकरी। वहां सरकारों के व्यवहार में फर्क है तो नागरिकों के व्यवहार में भी फर्क है।

मैं दुनिया के अनुभव में मसले को सभ्यतागत तुलना की और ले जा रहा हूं। सोचें कि पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश याकि दक्षिण एशिया ने महामारी के पिछले 11 महीने क्या एक से ही अंदाज में नहीं गुजारे? वायरस के साथ जीने की आदत बना कर भेड़-बकरियों में वायरस को पसरने दिया गया। हर्ड इम्युनिटी में वायरस को मार डालने के ख्याल में दस तरह के झूठों से जनता को बरगलाया गया। पर चीन ने ऐसा नहीं किया।
वायरस को युद्ध की तरह लेते हुए उसे खत्म करने की एप्रोच में वह रहा। ऐसे ही यहूदी इजराइल और उसके बगल के मुस्लिम फिलस्तीनी इलाके का फर्क उभरेगा। इजराइल में संक्रमण और मौत ज्यादा दर्ज है जबकि फिलस्तीनी इलाके में कम तो इसलिए कि इजराइल जहां नागरिकों की चिंता करने वाला विकसित देश है इसलिए टेस्टिंग में चुस्ती तो अपने नागरिकों को सच बताने वाली भी सरकार। ठीक विपरीत मुस्लिम फिलस्तीन सरकार के पास न साधन और न संवेदनशीलता। न सही टेस्ट और न सरकार व जनता में चिंता। इजराइल में शनिवार से ही टीकाकरण चालू है जबकि फिलीस्तीन क्षेत्र खुदा भरोसे!

जाहिर है अमीर-गरीब के फर्क ने मानवता को जो बांटा हुआ है तो वह फर्क महामारी के अनुभव में भी झलका हुआ है। अमीर व अमीर देश यदि वायरस के आगे अधिक घबराते हुए, मरते हुए घायल है तो वजह जीवन को सच्चाई से, साधनों से, ज्ञान-विज्ञान समझदारी से जीना है, जबकि गरीब व गरीब देश वायरस को जीवन का हिस्सा बना कर बेपरवाह जीने की प्रवृत्ति लिए हुए हैं और ऐसा संवेदना, बुद्धि-ज्ञान-सत्य में दारिद्रय की वजह से है। तभी अमीर देशों का कोविड-19 की महामारी से उबरना यदि तीन साल में संभव हुआ तो गरीब देशों को लगातार पांच-दस साल महामारी से जुझते रहना हो सकता है।

जो हो, वर्ष 2020 का क्रिसमस और सन् 2021 का प्रारंभ जिस वैश्विक माहौल में होना है वह इतिहास में हमेशा दर्ज रहेगा। अगले कुछ दशक तो हर क्रिसमस, हर नववर्ष सन् 2020 की याद कराता हुआ होगा।


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