सऊदी अरब में चीन की पैठ
जाहिर है, खाड़ी देशों का तेल से अलग होकर सोचना अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के लिए सुविधा और संपन्नता के द्वार बंद होने जैसा है। वहीं चीन का उभार मानवीय मूल्यों की कब्रगाह पर ऊंची अट्टालिकाएं खड़ी करने जैसा होगा।
ब्रह्मदीप अलूने: जाहिर है, खाड़ी देशों का तेल से अलग होकर सोचना अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के लिए सुविधा और संपन्नता के द्वार बंद होने जैसा है। वहीं चीन का उभार मानवीय मूल्यों की कब्रगाह पर ऊंची अट्टालिकाएं खड़ी करने जैसा होगा।
यह दुनिया की नई कूटनीतिक प्रतिज्ञा है, जिसमें एक-दूसरे का व्यापक रणनीतिक और आर्थिक सहयोग तो किया जा सकता है, लेकिन वैचारिक स्तर पर यह अपेक्षा की जाती है कि कोई किसी भी देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करे। चीन के राष्ट्रपति का सऊदी अरब में ऐतिहासिक स्वागत हुआ, दोनों देशों के बीच कई समझौते भी हुए और इन सबके बीच चीन ने 'वन चाइना' नीति पर सऊदी अरब का समर्थन जुटाते हुए यह भी साफ किया की दोनों देश एक-दूसरे के आंतरिक मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने आर्थिक आजादी में राजनीतिक आजादी के अवसर बनने का दावा करते हुए एक बार कहा था कि जब लोगों के पास सिर्फ सपने देखने की नहीं, सपनों को पूरा करने की भी आजादी होगी, तब वे चाहेंगे कि उनकी बात भी सुनी जाए। क्लिंटन ने चीन के साम्यवादी शासन की कठोरता के शिथिल होने की उम्मीद जताई थी।
मगर चीन ने अमेरिका और यूरोप के उदार शासन की मान्यताओं को पीछे छोड़ते हुए राजनीतिक नियंत्रण की व्यवस्था से ही दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का मुकाम हासिल कर लिया है। उसका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना भी तय है। इन सबके बीच चीनी विचारधारा आर्थिक फायदों की नई विश्व व्यवस्था का ऐसा जाल बुनने में सफल होती दिख रही है, जहां मानवीय मूल्यों को रौंदने की आजादी होगी और उसका प्रतिरोध करने वाली एजेंसियां या देश चुप रहने पर मजबूर कर दिए जाएंगे।
इस्लामी दुनिया की चीन को लेकर खामोशी बेहद रहस्यमय रही है और अब उसका असर भी सामने आने लगा है। दरअसल, 2018 में पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या के मामले में प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान अमेरिका के निशाने पर थे, लेकिन चीन और सऊदी अरब जैसे देशों में मानवाधिकार के मुद्दे कभी केंद्र में रहे ही नहीं। सऊदी अरब विकास तो करना चाहता है, लेकिन अभिव्यक्ति और अल्पसंख्यकों की आजादी पर उसका रुख चीन की शासन प्रणाली से मेल खाता है।
सऊदी अरब अमेरिका से हथियारों का बड़ा खरीददार रहा है, मगर पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका की नीति ने उसे असहज किया। यमन में शांति स्थापित करने के लिए बाइडेन प्रशासन ने फरवरी 2021 में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के लिए हथियारों को लेकर किए सौदों को अस्थायी रूप से निलंबित कर दिया, जो ईरान की प्रतिद्वंद्विता के चलते सऊदी अरब के लिए अप्रत्याशित था। अमेरिका की कई एजेंसियां भी सऊदी अरब पर दबाव डालती रही हैं।
अमेरिकी सरकार की एजेंसी 'यूनाइटेड स्टेट्स कमीशन आन इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम' ने धार्मिक आजादी के उल्लंघन के लिहाज से सबसे चिंताजनक देशों की काली सूची में सऊदी अरब का नाम शामिल किया है। सऊदी अरब पर आरोप है कि वह इस्लाम के अलावा किसी अन्य धर्म के पूजा स्थलों के निर्माण को प्रतिबंधित करता है। सऊदी अरब में शिया मुसलमानों को शिक्षा, रोजगार और न्यायपालिका में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इसके साथ ही सेना और सरकार के उच्च पदों तक उनकी पहुंच नहीं है और सरकारी संस्थाएं अब भी इन इलाकों में शिया समुदाय के धार्मिक आह्वान पर रोक लगाए हुए हैं।
हाल के वर्षों में सऊदी अरब ने अपने सामरिक और आर्थिक हितों की सुरक्षा के लिए अमेरिका के मूल्य आधारित संबंधों से आगे देखने की जरूरत महसूस की और उसे चीन में संभावनाएं बेहतर दिखीं। सऊदी अरब रूस के साथ अपने संबंधों को पुनर्जीवित कर रहा है और चीन के साथ अपने संबंधों को प्रगाढ़ बना रहा है, जो अमेरिका के सामरिक प्रतिस्पर्धी हैं।
चीन 'बेल्ट ऐंड रोड प्रोजेक्ट' की महत्त्वाकांक्षाओं को साकार रूप देने के लिए कृतसंकल्प है और वह करीब बीस अरब देशों से समझौते कर चुका है। इसमें ऊर्जा और आधारभूत ढांचे के क्षेत्र में दो सौ से ज्यादा परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं तथा चीन और अरब देशों के बीच साझा व्यापार नई ऊंचाइयां छू रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान तेल की कम आपूर्ति से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ रही हैं और इसका असर पश्चिमी देशों पर पड़ रहा है। वहीं सऊदी अरब ने चीन को कच्चे तेल की सबसे अधिक आपूर्ति की है। चीन सऊदी अरब को इस बात के लिए भी राजी करने की कोशिश कर रहा है कि कुछ व्यापार के लिए भुगतान की मुद्रा डालर के बजाय युआन यानी चीनी मुद्रा में हो। इसका अर्थ साफ है कि चीन के इरादे डालर प्रभाव को कम करने तथा युआन को वैश्विक स्तर पर मजबूत करने की ओर बढ़ रहे हैं।
चीन और अरब देशों की दोस्ती तेल आपूर्ति से कहीं आगे अब हथियार और सैन्य सामान की खरीद तक पहुंच चुकी है। सऊदी अरब और यूएई ने चीन से सैन्य उपकरणों का सौदा किया है, जिसमें हथियारबंद ड्रोन तैयार करने का सौदा अहम है। सऊदी अरब ने बाइडेन की तेल का उत्पादन बढ़ाने की अपील को दरकिनार कर रूस के प्रतिनिधित्व वाले 'ओपेक प्लस' के साथ मिलकर प्रतिदिन बीस लाख बैरल तेल का उत्पादन घटाने का फैसला कर पश्चिमी देशों की चिंता बढ़ा दी है। सऊदी अरब और चीन की बढ़ती नजदीकियां अमेरिका की एशिया केंद्रित नीति के लिए झटका है।
मध्यपूर्व के देशों की तेल आधारित अर्थव्यवस्था की चुनौतियां कम नहीं हैं। यहां आपसी प्रतिद्वंद्विता के चलते कई देश गृहयुद्ध की आग में झुलस रहे हैं और प्राकृतिक गैस पाइपलाइन को बार-बार क्षतिग्रस्त करने से इन देशों की आर्थिक समस्याओं में इजाफा हुआ है। मध्यपूर्व एशिया में चीन का रेल और सड़क का जाल पिछड़े हुए इलाकों में विकास की नई रोशनी दिखा रहा है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही अमेरिका की कोशिश रही है कि तेल के भंडार से उनको लगातार, बिना किसी परेशानी के तेल मिलता रहे और तेल उत्पादन और उसकी बिक्री बिना किस रुकावट के चलती रहे। इसलिए अमेरिका ने 1950 के दशक से ही कई देशों की अंदरूनी राजनीति में दखल देना शुरू कर दिया। इसके परिणाम स्वरूप जहां मध्यपूर्व में अशांति फैली, वहीं अमेरिका को लेकर इन क्षेत्रों में नाराजगी भी बढ़ गई।
वैश्वीकरण ने वैश्विक स्तर पर भू-राजनीति को बदल दिया। खाड़ी देशों ने तेल को ताकत बना कर उसकी आपूर्ति को अपने हितों के आधार पर संचालित किया, तो अमेरिका, रूस, चीन और यूरोप के बीच प्रतिद्वंद्विता भी बढ़ गई। इस समय चीन खाड़ी देशों को भरोसा दिला रहा है कि उनके पास अगर तेल खत्म भी हो गया तो उसके रेल और सड़क परियोजना के बूते उनके विकास की नई राह खुलेगी। चीन की यह नीति खाड़ी देशों को इसलिए भी लुभा रही है, क्योंकि यह आने वाली सदी की संभावनाओं की योजना है।
सऊदी अरब कच्चा तेल मुक्त 'विजन 2030' पर तेजी से काम कर रहा है। क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान चाहते हैं कि सऊदी अरब को हरित देश बनाया जाए। दुनिया का यह सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश इस बात से चिंतित है कि तेल के बाद उसके देश के पास कमाई का क्या साधन होगा। अब सऊदी अरब व्यापार और पर्यटन केंद्र के रूप में खुद को उभारने की व्यापक योजना पर काम कर रहा है, जहां उसके बड़े भागीदार भारत और चीन जैसे देश हैं। जाहिर है, खाड़ी देशों का तेल से अलग होकर सोचना अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के लिए सुविधा और संपन्नता के द्वार बंद होने जैसा है। वहीं चीन का उभार मानवीय मूल्यों की कब्रगाह पर ऊंची अट्टालिकाएं खड़ी करने जैसा होगा।