चीन को 'पहाड़ के नीचे' लाना होगा !

चीन के बारे में सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि यह केवल ताकत या सेना की भाषा समझता है। ये विचार मेरे नहीं बल्कि भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू के हैं जिनके शासनकाल में 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान भारत की पराजय हुई थी और चीन की सेनाएं असम के तेजपुर तक पहुंच गई थीं। बाद में चीनी सेनाएं अन्तर्राष्ट्रीय दबाव के चलते पीछे हट गईं परन्तु उन्होंने अक्साई चिन का वह इलाका अपने कब्जे में ले लिया जो 25 हजार वर्ग कि.मी. के लगभग था।

Update: 2022-12-16 04:14 GMT

आदित्य चोपड़ा; चीन के बारे में सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि यह केवल ताकत या सेना की भाषा समझता है। ये विचार मेरे नहीं बल्कि भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू के हैं जिनके शासनकाल में 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान भारत की पराजय हुई थी और चीन की सेनाएं असम के तेजपुर तक पहुंच गई थीं। बाद में चीनी सेनाएं अन्तर्राष्ट्रीय दबाव के चलते पीछे हट गईं परन्तु उन्होंने अक्साई चिन का वह इलाका अपने कब्जे में ले लिया जो 25 हजार वर्ग कि.मी. के लगभग था। यह पूरा इलाका अभी भी चीन के कब्जे में है बल्कि 1963 में इसमें नाजायज मुल्क पाकिस्तान ने पांच हजार वर्ग कि.मी. का और इजाफा कर लिया और पाक अधिकृत कश्मीर का काराकोरम का इलाका इसे सौगात में दे दिया। भारत-चीन युद्ध के चलते ही जब पं. जवाहर लाल नेहरू ने आचार्य कृपलानी की मांग पर संसद का विशेष सत्र इस मुद्दे पर चर्चा करने के लिए बुलाया तो लम्बी बहस के बाद जो पं. जवाहर लाल नेहरू ने सदन में उत्तर दिया उसका सबसे महत्वपूर्ण अंश यह था कि पंडित जी ने स्वीकारा था कि चीनी केवल ताकत की भाषा ही समझते हैं। उन्होंने कहा था चीनी 'मिलिट्री मांइडेड' लोग हैं। उनके शब्द थे कि 'चाइनीज आर मिलिट्री माइंडेड पीपल'। यह कथन उन पं. जवाहर लाल नेहरू का था जिनकी ख्याति पूरे विश्व में शान्ति की पुजारी की थी और उन्होंने ही चीन के साथ पंचशील समझौता किया था जिसके सह अस्तित्व व सहयोग प्रमुख बिन्दू थे। इसके बाद से ही भारत ने अपनी सेनाओं का सुसज्जीकरण व आधुनिकीकरण शुरू किया। चीनी हमला भारत के लिए बहुत बड़ा सबक साबित हुआ और सिद्ध कर दिया कि 'भय बिन होत न प्रीत।' जाहिर है कि आज का भारत 1962 का भारत नहीं है। परन्तु यह भी सत्य है कि भारत की सीमाएं छह तरफ से चीन से मिलती हैं और लद्दाख हज्म कर जाने के बाद वह भारत का निकटतम पड़ाेसी है। अतः भारत को हर मोर्चे पर फूंक-फूंक कर कदम रखना होगा और चीन को बताना होगा कि उसका पाला उस भारत से पड़ा है जिसकी फौजों ने 1967 में उसे नाथूला सीमा पर नाको चने चबवा दिये थे। बेशक चीन के साथ कूटनीतिक सम्बन्धों का महत्व है क्योंकि वह दुनिया में अब एक आर्थिक ताकत बन चुका है और भारत के साथ उसका वाणिज्य-व्यापार भी खूब फल- फूल रहा है। ध्यान देना वाली बात यह है कि भारत के राष्ट्रीय हितों को सर्वोच्च रखते हुए हमें जोश के साथ होश भी कायम रखने होंगे क्योंकि चीन यदि भारतीय सीमाओं पर युद्धोन्माद पैदा करता है तो दुनिया की उन ताकतों को बीच में कूदने का मौका मिल जायेगा जो चीन के साथ आर्थिक या वैचारिक मोर्चों पर अपना हिसाब-किताब ठीक करना चाहती हैं। भारत की विदेश नीति प्रारम्भ से ही यह रही है कि वह आपसी द्विपक्षीय मामलों में किसी तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप का हिमायती नहीं रहा है। हमें चीन से स्वयं ही निपटना होगा और इस प्रकार निपटना होगा कि उसकी सामरिक ताकत बनने का गरूर टूटे और इस तरह टूटे कि वह भारत के दर पर आकर माथा टेकने के लिए मजबूर हो जाये। भारत का हिन्द महासागर क्षेत्र पूरी दुनिया के व्यापार व तिजारत का एशिया से यूरोप का सिंहद्वार या 'गेटवे' कहा जाता है। इसमें प्रशान्त महासागर के समागम के बाद इसका महत्व और भी बढ़ जाता है जिसके लिए भारत- आस्ट्रेलिया-जापान व अमेरिका का तालमेल या समझौता है। चीन की कोशिश रहती है कि भारत इन चार देशों के तालमेल समूह से या तो बाहर निकले या फिर निष्क्रिय हो जाये। वास्तव में भारत इस क्षेत्र में शक्ति सन्तुलन बनाने का निर्णायक काम कर रहा है। चीन की खीझ इसी बात पर है कि भारत के अमेरिका के साथ भी रणनीतिक सम्बन्ध हैं और रूस के साथ भी। मगर इस सन्दर्भ में हमें हमेशा इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि अमेरिका भारत का संकट के समय कभी भी मित्र साबित सही नहीं हुआ है, सिवाय 1962 के। मगर इससे भी हम गफलत में नहीं रह सकते क्योंकि भारत को अपने नापाक इरादों से शुरू से ही पामाल करने की नीयत वाले पाकिस्तान ने अब चीन का दामन थाम रखा है और एक जमाने तक पाकिस्तान सिर्फ अमेरिका व पश्चिमी देशों की शह पर ही भारत के खिलाफ दुश्मनी की इबारत लिखता रहा है। अतः हम अमेरिका पर भी आंख मूंद कर यकीन नहीं कर सकते। यह तो वह देश है जिसने 2008 में भारत से परमाणु करार करने के बाद अभी तक भारत को परमाणु ईंधन सप्लायर्स देशों (न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप) का सदस्य तक बनवाने में कोई ठोस पहल नहीं की है। भारत द्विपक्षीय समझौतों के आधार पर ही न्यूक्लियर ईंधन प्राप्त करता है। इसके साथ ही अमेरिका वैचारिक दर्शन (आइडियोलोजी) के निर्यात कारोबार में भी है जबकि भारत का स्पष्ट मत है कि हर देश के लोगों को ही अपनी वैचारिक सोच या सिद्धान्त के आधार पर अपनी मनमर्जी की सरकार पाने का हक है। इसलिए चीन के साथ सामरिक व कूटनीतिक दोनों ही मोर्चों पर लोहा लेते हुए उसे रास्ते पर इस प्रकार लाना होगा कि भारत का सहयोग पाना उसकी मजबूरी बन जाये। क्योंकि यह चीन भी जानता है कि भारत से युद्ध करना उसके अपने विनाश को ही दावत देने के समान हो सकता है।

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