चार धाम 'अधिग्रहण' की कोशिश बीजेपी के 'मंदिर मुक्ति अभियान' से मेल नहीं खाती

विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि भारत को एक भौगोलिक इकाई के रूप में बनाए रखने में अंग्रेजों के मसौदा बोर्ड का काफी योगदान रहा है

Update: 2021-12-02 14:29 GMT
आशीष मेहता।
विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि भारत को एक भौगोलिक इकाई के रूप में बनाए रखने में अंग्रेजों के मसौदा बोर्ड का काफी योगदान रहा है. लेकिन चर्चिल के इस दावे के जवाब में यहां ये बताना जरूरी है कि आदि शंकराचार्य ने सदियों पहले चार धाम (Char Dham) यात्रा की धारणा तैयार कर कुछ ऐसा ही किया था. उनके द्वारा सुझाए गए चार पवित्र स्थलों के तीर्थस्थल भारत के चार कोनों में थे- द्वारका, बद्रीनाथ, पुरी और रामेश्वरम. इसके अलावे 'छोटा चार धाम' सर्किट भी था, जिसमें 'देवभूमि' के चार जगहों को शामिल किया गया था- यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ.
भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से एकजुट इकाई के रूप में भारत को बनाए रखने के आदि शंकराचार्य की धारणा तीर्थयात्रा के इन दो तरीकों के साथ ही समाप्त नहीं हो जाती. बल्कि उन्होंने सदियों से हिन्दुओं के बीच के रिश्ते को और मजबूत करने के लिए दूसरी मान्यताओं को भी स्थापित किया. उन्होंने बताया कि बर्फ से ढके केदारनाथ के मंदिर के रावल (यानि प्रधान पुजारी) दक्षिण में स्थित कर्नाटक राज्य के वीरशावा समुदाय के होंगे. इसी तरह समुद्र तल से 10,000 फीट से ज्यादा की ऊंचाई पर मौजूद बद्रीनाथ के रावल परंपरागत रूप से केरल के नंबुदीरी समुदाय से होते हैं.
इस परंपरा और इसके पीछे के तर्क का सम्मान ब्रिटिश शासन के दौरान भी किया गया. श्री बद्रीनाथ-श्री केदारनाथ अधिनियम 1939 ने आधुनिक कानूनी शर्तों के साथ इस व्यवस्था को औपचारिक रूप दे दिया. इसलिए ये काफी आश्चर्यजनक था जब उत्तराखंड की बीजेपी सरकार ने न सिर्फ उस परंपरा को दरकिनार किया बल्कि इस कानून को भी पलट दिया.
पुरोहितों की नाराजगी की वजह से ही त्रिवेंद्र सिंह रावत को बदला गया था
2019 के चार धाम देवस्थानम प्रबंधन अधिनियम के तहत सरकार ने चार 'छोटा चार धाम' और 45 अन्य मंदिरों के प्रशासन को अपने नियंत्रण में ले लिया. पिछले दशक में इन धार्मिक स्थलों पर आने वाले तीर्थयात्रियों की संख्या अचानक बढ़ी है. पहले दशहरा के बाद केदारनाथ मंदिर की 14 किमी लंबी और मुश्किल पैदल यात्रा में कम ही श्रद्धालु नजर आते थे, फिर दिवाली के बाद छह महीने के लिए मंदिर के द्वार बंद हो जाते थे. लेकिन आज हालात बदल गए हैं. इन दिनों इस रूट पर (अब 18 किमी लंबी) भारत के कोने-कोने से हर उम्र के तीर्थयात्रियों की वैसी ही भीड़ नजर आती है जैसी रविवार को चांदनी चौक पर दिखती है. जाहिर है कि श्रद्धालुओं की संख्या में बढ़ोतरी से मंदिरों की दान-दक्षिणा में भी जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है. और सरकार साफ तौर पर नए कानून के जरिए इस पर नजर गड़ाए हुए थी.
पुरोहितों की नाराजगी की वजह भी साफ है. शायद कुछ हद तक इसी वजह से मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को भी बदला गया क्योंकि ये बिल लेकर वही आए थे. उनके उत्तराधिकारी तीरथ सिंह रावत ने भी चार धाम पुजारी के हक हुकुकधारी महापंचायत समिति की ओर ध्यान नहीं दिया और लंबे समय तक नहीं टिके. उनके उत्तराधिकारी पुष्कर सिंह धामी के पास कोई और विकल्प नहीं था. इसलिए जिस तरह केंद्र सरकार ने कृषि कानून को रद्द किया उसी तरह चुनाव से तीन महीने पहले धामी ने देवस्थानम बोर्ड को भंग कर दिया.
देवस्थानम बोर्ड बन गया था चुनावी मुद्दा
दिवाली के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की केदारनाथ यात्रा से पहले ही धामी पुजारियों को शांत करने के लिए मंदिर पहुंचे थे. उन्होंने वादा किया था कि 30 नवंबर तक वो जरूरी फैसला ले लेंगे. इसके एवज में उन्होंने तीर्थ–पुरोहितों से ये भी वादा ले लिया था कि वे प्रधानमंत्री को काले झंडे नहीं दिखाएंगे जैसा कि कुछ दिन पहले त्रिवेन्द्र सिंह रावत के साथ किया गया था.
इतना ही नहीं, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी लगातार कह रही थी कि सत्ता में आते ही वो इस विवादास्पद अधिनियम को निरस्त करेगी. ऐसे हालात में धामी के पास अपने वचन को निभाने के अलावे और कोई विकल्प नहीं बचा था. और उन्होंने 30 नवंबर को ये एलान कर दिया कि कानून निरस्त कर दिया जाएगा. बहरहाल, चुनावी राजनीति के इस खेल में एक बड़ी बहस न हो सकी.
दो राज्यों में दो तरह की बात कैसे चलेगी?
सवाल ये है कि क्या पुजारियों को तीर्थयात्रियों से देवताओं को मिले दान–दक्षिणा लेने का अधिकार है? मंदिरों को मिलने वाले लाखों–करोड़ों रुपये के दान मंदिरों के नियमित रखरखाव और कर्मचारियों के वेतन के अलावा कहां खर्च किए जाते हैं इसकी जानकारी नहीं होती. इस मामले में सरकार के हस्तक्षेप से मामला राजनीतिक बन जाता है, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है सरकार लोगों का प्रतिनिधित्व करती है. ऐसे में लोकतंत्र की तरह सरकार भी मौजूदा विकल्पों, सबसे कम खराब विकल्प नजर आती है. खासकर तब जब सरकार सड़कों के चौड़ीकरण से लेकर रेलवे कनेक्टिविटी के विस्तार जैसे काम पर लाखों खर्च कर रही है. 2013 में बाढ़ की विनाशलीला झेल चुके केदारनाथ मंदिर का पुनर्उद्धार कर रही है.
राजनीति की वजह से ही इस महत्वपूर्ण बहस को ठीक से उठाया नहीं जा रहा है. बहरहाल, इसी साल जब उत्तराखंड के चार धामों के पुजारी अपनी परंपारागत अधिकारों के अधिग्रहण के खिलाफ बीजेपी सरकार का विरोध कर रहे थे तो बीजेपी भी ऐसे ही मुद्दे पर केरल में अपना विरोध दर्ज कर रही थी. इस साल की शुरुआत में गृह मंत्री अमित शाह केरल में एक अभियान का नेतृत्व कर रहे थे, जिसका मकसद था: सरकारी "हस्तक्षेप" से हिंदू मंदिरों को "मुक्त" करवाना. कोल्लम जिले के चथानूर शहर में एक सार्वजनिक रैली के दौरान अमित शाह ने 24 मार्च को कहा था, "बीजेपी का मानना है कि सरकारों को मंदिरों से संबंधित मुद्दों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.." कहने की जरूरत नहीं कि बद्रीनाथ के वे पुजारी जो केरल से आते हैं बेहद हैरान हो रहे होंगे.
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