अव्यवस्था और अनदेखी : सीवरों में घुटता दम, कब तक यूं ही होती रहेगी मजदूरों की मौत?
जब मानवता के नाम पर लगे इस कलंक को समाप्त किया जा सके।
पिछले सप्ताह बीकानेर के औद्योगिक क्षेत्र में एक ऊन मिल में बने सेफ्टी टैंक की सफाई करते चार मजदूरों की जहरीली गैस के कारण दम घुटने से मौत हो गई। महाराष्ट्र के ठाणे में एक आवासीय भवन में पानी की टंकी की सफाई के दौरान दम घुटने से दो श्रमिकों की मौत हो गई। गुरुग्राम के करीब नूंह में दो भाइयों की मृत्यु भी जहरीली गैस के कारण हुई। मुंबई के उपनगर कांदीवली में सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान तीन मजदूरों की मृत्यु हुई। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के सआदतगंज इलाके में सीवर की सफाई के लिए मैनहोल में उतरे दो कर्मियों की मौत हो गई।
रायबरेली के शहर कोतवाली क्षेत्र में जल निगम द्वारा बनाए जा रहे सीवर टैंक में सफाई के दौरान उतरे दो श्रमिकों की मौत हो गई। दिल्ली के संजय गांधी ट्रांसपोर्ट नगर में सीवर से गुजर रहे टेलीफोन केबल की मरम्मत करने घुसे तीन मजदूर समेत चार लोग अंदर फंस गए। आजादी के अमृत महोत्सव में सफाई अभियान पर जोर है। लाल किले के प्राचीर से प्रधानमंत्री स्वच्छ भारत के तहत अभियान चला चुके हैं। इसके बावजूद आए दिन सीवर की सफाई के दौरान मजदूरों की दर्दनाक मौत की सूचना आती रहती है।
सर्वोच्च न्यायालय कई अवसरों पर सरकारों को फटकार लगाते हुए कह चुका है कि दुनिया के किसी भी देश में लोगों को मारने के लिए गैस चैंबर में नहीं उतारा जाता। मास्क और ऑक्सीजन सिलेंडर के बिना कर्मचारियों को टैंकों में उतारने को शीर्ष अदालत ने सबसे अमानवीय कार्य कहा है। पिछले 10 साल में केवल मुंबई नगर निगम के 2,721 सफाई कर्मचारियों की मौत सफाई के दौरान हुई है। ज्यादातर स्थानीय ठेकेदार अकुशल सफाई कर्मचारियों को बगैर बेल्ट, मास्क, टार्च व अन्य प्राथमिक बचाव उपकरणों के गहरे टैंकों में उतार देते हैं, जहां जहरीली गैसों से उनकी मौत हो जाती है।
इस तरह की मौतों के विरोध में न कोई कैंडल मार्च निकालता है, न ही यह मुद्दा राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बन पाता है। संसद में इन घटनाओं का संज्ञान न लिया जाना कलह पूर्ण राजनीति की परतों पर पर्दा डालने जैसा है। इन मौतों को रोकने के लिए समय-समय पर प्रयास किए गए। छह सितंबर, 1993 को मैला ढोने और शुष्क शौचालयों के निर्माण पर रोक लगाने वाला कानून बनाया गया था। मैला ढोने जैसे रोजगार को निषेध और पुनर्वास अधिनियम, 2013 के खंड 7 के तहत सेप्टिक टैंक की सफाई करने अथवा मजदूरी करवाने पर प्रतिबंध है।
मौजूदा कानून के तहत इस तरह की सफाई और शौचालयों का जारी रखना संविधान के अनुच्छेद 14, 17, 21 और 23 का उल्लंघन है। वर्ष 2014 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के तहत सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को 2013 का कानून पूर्ण रूपेण लागू करने, सीवर टैंकों की सफाई के दौरान हुई मौतों पर काबू पाने और मृतकों के आश्रितों को 10 लाख का मुआवजा देने का आदेश दिया जा चुका है। पर कुछ नहीं हुआ। हर पांचवें दिन एक सफाई कर्मचारी मौत का ग्रास बन रहा है।
तमाम तकनीकी उपलब्धियों के बावजूद सेप्टिक टैंकों की सफाई में मशीनरी प्रक्रिया का इस्तेमाल नहीं हो रहा। वर्ष 2011 के आंकड़ों के अनुसार, देश में सूखे शौचालयों की संख्या 26 लाख है। करीब 14 लाख शौचालयों का मलबा खुले में प्रवाहित किया जाता है, जिनमें आठ लाख से ज्यादा शौचालयों के मल की सफाई हाथों से की जाती है। सिर्फ 30 फीसदी नालों का पानी ही ट्रीट हो पाया है। स्वच्छता अभियान केंद्र सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल है, पर इस मद में बजट में पिछले वर्ष की तुलना में वृद्धि नहीं हुई है।
सरकारी तंत्रों की सख्ती भी जरूरी है। तभी ड्रेनेज, सीवर के ठेकेदारों के हौसले पस्त होंगे। केंद्र सरकार ने मैला सफाई की व्यवस्था खत्म करने हेतु 1.25 लाख करोड़ रुपये की लागत से नेशनल ऐक्शन प्लान तैयार किया है, जिसके तहत 500 शहरों समेत सभी बड़े ग्राम पंचायतों में भी सफाई के लिए हाईटेक मशीनों का इस्तेमाल किया जाना है। अमृत महोत्सव का उत्सव तभी कारगर होगा, जब मानवता के नाम पर लगे इस कलंक को समाप्त किया जा सके।
सोर्स: अमर उजाला