पुरुषों की पीड़ा की उपेक्षा
यह दुर्भाग्यपूर्ण, परंतु सत्य है कि आमजन से लेकर हमारी न्यायिक व्यवस्था पुरुषों की पीड़ा की उपेक्षा करती है। घरेलू हिंसा निरोधक अधिनियम, दहेज निरोधक अधिनियम और कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न अधिनियम स्पष्टत: महिलाओं को सुरक्षा और सम्मान का जीवन देने के लिए बनाए गए। ये लैंगिक समानता को स्थापित करने के लिए आवश्यक भी हैं, परंतु एक की समानता दूसरे के शोषण के अधिकारों का मार्ग प्रशस्त करे तो समाज बिखर जाएगा। यह निर्विवाद सत्य है कि महिलाओं ने इन कानूनों का अपने निजी हितों को साधने में दुरुपयोग किया है।
आइपीसी की धारा 498ए का दुरुपयोग
उल्लेखनीय है कि जुलाई 2005 में उच्चतम न्यायालय ने इसे कानूनी आतंकवाद की संज्ञा दी थी। वहीं विधि आयोग ने अपनी 154वीं रिपोर्ट में इस बात को स्पष्ट शब्दों में स्वीकारा था कि आइपीसी की धारा 498ए का दुरुपयोग हो रहा है। अब यहां महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि ऐसा क्यों? दरअसल संपूर्ण भारतीय समाज एक सामाजिक सांस्कृतिक संक्रमण काल से गुजर रहा है, जहां रिश्तों में भौतिकता ने घुसपैठ कर ली है और संबंधों में प्रेम खत्म हो रहा है, जिसके चलते अहम् टकराने लगे हैं। इन परिस्थितियों के बीच विगत कुछ दशकों में एक और परिवर्तन आया है। महिलाएं शिक्षित हुई हैं। उन्होंने अपने विधिक अधिकारों को जाना है। हालांकि यह किसी भी समाज एवं देश की उन्नति के लिए आवश्यक भी है, परंतु इसके साथ निजी स्वार्थों की र्पूित के लिए कानूनी संरक्षण के अंतर्गत मिले प्रविधानों का दुरुपयोग जैसा दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य भी जुड़ा है।
कानून महिलाओं को घरेलू हिंसा से सुरक्षा देता है, लेकिन पुरुष के साथ घरेलू हिंसा पर कोई चर्चा नहीं
घरेलू हिंसा निरोधक अधिनियम महिलाओं को घरेलू हिंसा से सुरक्षा देने की बात तो करता है, परंतु कहीं भी पुरुषों के साथ होने वाली घरेलू हिंसा के संदर्भ में चर्चा नहीं करता। यानी विधि निर्माता इस मिथक को स्वीकार कर बैठे हैं कि पुरुष घरेलू हिंसा का शिकार नहीं हो सकते, परंतु क्या यह वाकई संभव है। पूरी दुनिया में करीब 40 प्रतिशत पुरुष घरेलू हिंसा के शिकार हैं। अध्ययन बताते हैं कि महिला और पुरुष अगर एक ही अपराध करें तो उसके लिए पुरुषों के जेल जाने के आसार महिलाओं के मुकाबले तीन से चार गुना ज्यादा होते है। इंडियन जर्नल ऑफ कम्युनिटी मेडिसिन के मुताबिक 21 से 49 वर्ष के 53 प्रतिशत पुरुषों के साथ सिर्फ इसलिर्ए ंहसा होती है, क्योंकि वे पुरुष हैं। विश्व भर में घरेलू हिंसा से सुरक्षा संबंधी कानून स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं करता। यही कारण है कि जर्मनी में पिछले वर्ष 26 हजार पुरुषों ने अपने विरुद्ध हो रही घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज करवाई। वहीं मेक्सिको में घरेलू हिंसा के कुल पीड़ितों में करीब 25 प्रतिशत पुरुष हैं। क्या यह कल्पनीय है कि भारत में कोई पुरुष अपने विरुद्ध हो रहे घरेलू हिंसा के मामलों को दर्ज करवा सके, क्योंकि यह सामान्य जन के लिए सहज विश्वसनीय नहीं होगा।
राज्यसभा सदस्य सोनल मानसिंह ने कहा- पुरुष दिवस भी मनाया जाना चाहिए
अगर कोई पुरुष पौरुष से जुड़े मिथकों को तोड़ते हुए ऐसा साहस कर भी ले तो उसके पास यह कानूनी संरक्षण नहीं है, जो उसे त्वरित राहत दे सके, सिवाय एक लंबी कानूनी प्रक्रिया को अपनाने के। इस दौर में हर कोई महिलाओं के अधिकारों को लेकर तो संघर्ष कर रहा है, लेकिन पुरुषों के लिए कानून कहां हैं, जो महिलाओं द्वारा झूठे मामलों में फंसा दिए जाते हैं। इस बारे में कदम उठाने का वक्त आ चुका है। पुरुषों के अधिकारों की पैरवी में राज्यसभा सदस्य सोनल मानसिंह ने सोमवार को संसद में महिला दिवस की तरह पुरुष दिवस भी जोरशोर से मनाने की वकालत की।
महिलाओं के संरक्षण के लिए बने कानूनों ने पुरुषों को भयभीत कर दिया
स्वाभाविक है किसी एक पक्ष के लिए न्याय की लड़ाई पूर्वाग्रह से इतनी भी ग्रस्त नहीं होनी चाहिए कि दूसरा पक्ष बिना अपराध के ही प्रताड़ित और अपमानित होता रहे। निरंतर हो रहे दुरुपयोग के चलते महिलाओं के संरक्षण के लिए बने कानूनों ने समाज के एक तबके को भयभीत कर दिया है। अब समय आ गया है कि इन कानूनों पर पुनर्मंथन किया जाए, क्योंकि बदले सामाजिक परिवेश के साथ न्याय की पुनव्र्याख्या अगर नहीं की जाए तो वे समाज के लिए उपयोगी नहीं रहते।