धरती बचाने की चुनौती

तय यह भी है कि किसी बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कुछ छोटे स्वार्थों का त्याग करना होता है। नीतियों और व्यवहार में यदि किंचित दूरदृष्टि को अपनाया जाए तो कोई लक्ष्य कठिन नहीं होता। यह उम्मीद शर्म अल शेख सम्मेलन में पहुंचे देशों से है।

Update: 2022-11-08 05:53 GMT

अतुल कनक: तय यह भी है कि किसी बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कुछ छोटे स्वार्थों का त्याग करना होता है। नीतियों और व्यवहार में यदि किंचित दूरदृष्टि को अपनाया जाए तो कोई लक्ष्य कठिन नहीं होता। यह उम्मीद शर्म अल शेख सम्मेलन में पहुंचे देशों से है।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सहित कई शहरों में हवा की गुणवत्ता खतरनाक स्थिति में है। दिल्ली और आसपास के अस्पतालों में प्रदूषणजनित बीमारियों का इलाज कराने के लिए आने वाले मरीजों की संख्या सामान्य दिनों की तुलना में तीन गुना बढ़ गई। चिकित्सक सलाह दे रहे हैं कि अलसुबह और शाम को लोग घूमने जाने से बचें। खासकर बुजुर्गों, गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों को प्रदूषित हवा के कारण ज्यादा नुकसान पहुंचने का डर है। विडंबना तो यह है कि ऐसा इस बार ही नहीं हुआ है, बल्कि पिछले कई सालों से यह सिलसिला चला आ रहा है कि नवंबर के महीने में उत्तर भारत के बड़े हिस्से में वायु प्रदूषण जानलेवा साबित हो रहा है।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में दीपावली के बाद के हवा का जहरीला होना एक नियमित और गंभीर समस्या बन गया है। हवा में प्रदूषण फैलाने वाले तत्वों की मात्रा मानक स्तर से कई गुना अधिक हो जाती है। चिकित्सकों का तो यहां तक कहना है कि वायु प्रदूषण के कारण बच्चों के मानसिक विकास पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है जो उनके जीवन की गुणवत्ता पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। यों भी कोविड महामारी ने आबादी के बड़े हिस्से के फेफड़ों की क्षमता पर प्रतिकूल असर डाला है।

चिकित्सा विज्ञान की भाषा में जिन्हें पोस्ट कोविड सिंड्रोम यानी कोविड महामारी के बाद के लक्षण कहा जा रहा है, उनमें समूचे श्वसन तंत्र की क्षमताओं पर प्रतिकूल प्रभाव भी शामिल है। हाल में अध्ययनों से यह साबित भी हुआ है कि अधिक मात्रा में प्रदूषित हवा ग्रहण करने से हृदय संबंधी विकारों के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं।

पर्यावरण प्रदूषण केवल भारत की ही समस्या नहीं है, सारी दुनिया इससे ग्रस्त है। इसीलिए पर्यावरण संरक्षण को लेकर पिछले कई दशकों से दुनिया भर में लगातार चर्चाएं हो रही हैं। हर साल जलवायु सम्मेलन हो रहे हैं। इस बार भी संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में मिस्र के शर्म अल शेख शहर में रविवार से पर्यावरण के वैश्विक संदर्भों पर चर्चा करने के लिए भागीदार देशों का सम्मेलन यानी कॉप 27 (कांफ्रेंस आफ पार्टीज) शुरू हो चुका है।

यह सम्मेलन दो सप्ताह तक चलेगा। इसके पहले यह सम्मेलन स्काटलैंड के ग्लासगो शहर में हुआ था। पृथ्वी के पर्यावरण को लेकर दुनिया की यह चिंता 1990 के दशक में सारी दुनिया को एक मंच पर लेकर आई थी, जब ब्राजील के रियो दे जेनेरियो शहर में पहला पृथ्वी सम्मेलन हुआ था। तब से बातें तो बहुत होती रहीं, लेकिन जिम्मेदार देशों द्वारा अपनी भूमिका को ईमानदारी से आज तक नहीं निभाया गया। इसी का नतीजा है कि दुनियाभर में जलवायु संकट के गंभीर नतीजे देखने को मिल रहे हैं।

इस बात को एक उदाहरण से समझ सकते हैं। कतिपय अपवाद यदि छोड़ दिए जाएं तो शहरों में वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण सड़कों पर दौड़ने वाले वाहन हैं। इन वाहनों में इस्तेमाल होने वाले जैविक र्इंधन याने पेट्रोल और डीजल से वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड, मीथेन, नाइट्रोजन जैसी विषैली गैसें निकलती हैं और हवा की गुणवत्ता को खराब करती हैं।

होना तो यह चाहिए था कि ऐसे में जैविक र्इंधन के इस्तेमाल को हतोत्साहित किया जाता। यदि सरकारें सार्वजनिक परिवहन को सहज सुलभ और गुणवत्तापूर्ण करने की दिशा में तेजी से बढ़तीं तो लोग वैयक्तिक वाहनों के इस्तेमाल से परहेज करते। लेकिन पिछले तीन-चार दशकों में जिस तरह से कारों और दुपहिया वाहनों की बिक्री को प्रोत्साहित किया गया, उसे देख कर यह लगता है कि सरकारें सार्वजनिक परिवहन की उपलब्धता के प्रति ज्यादा संवेदनशील नहीं हैं। यह स्थिति भारत जैसे विकासशील देशों में तो बहुत ही शिद्दत के साथ महसूस की जा सकती है।

हालांकि बिजली से चलने वाले वाहनों के इस्तेमाल को बढ़ावा देने की बात हो रही है, लेकिन इस दिशा में विकासशील देशों को एक लंबा रास्ता तय करना होगा। और विकासशील देश ही क्यों, अमेरिका जैसे देश में भी अस्सी फीसद ऊर्जा का उत्पादन जैविक र्इंधन से ही होता है, जबकि यूरोपीय देशों में यह आंकड़ा सत्तर फीसद है। जैविक र्इंधन में कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस शामिल है।

जिस प्राकृतिक गैस को कतिपय लोग पर्यावरण की दृष्टि से बहुत सुरक्षित माध्यम मानते हैं, वह प्राकृतिक गैस जैविक र्इंधन द्वारा उत्पादित होने वाली कार्बन डाई आक्साइड जैसी जहरीली गैस के कुल उत्सर्जन में तेईस प्रतिशत के लिए जिम्मेदार है। जिम्मेदार मुल्कों का पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशीलता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसी साल जुलाई में यूरोपीय संघ ने इस बात की पैरवी की कि कतिपय कार्यों में इस प्राकृतिक गैस के उपयोग को दोषरहित करार दिए जाते हुए स्वीकार्य माना जाए।

विकासशील और अविकसित देशों का कहना है कि वे विकसित देशों द्वारा पर्यावरण को पहुंचाए गए नुकसान की कीमत क्यों अदा करें? यह सच है कि कुछ देशों ने विकास की अंधी दौड़ में सबसे आगे बने रहने या सबसे आगे पहुंचने के लिए प्रकृति के साथ बहुत खिलवाड़ किया है और इस खिलवाड़ के प्रति अपनी नाराज़गी के संकेत प्रकृति अब खुल कर देने लगी है। इस साल गर्मी के मौसम में यूरोप और अमेरिका के बड़े हिस्से में जंगल धधकते नजर आए। शहरों का तापमान इतना बढ़ गया कि रेल की पटरियां तक नहीं बच पार्इं।

कई शहरों में नागरिकों के लिए सड़कों पर पानी की फुहारों का इंतजाम करना पड़ा। हालत यह हो गई कि लंदन ब्रिज को पिघलने से बचाने के लिए उसे ढंकना पड़ा। पर्यावरण पर होने वाली वैश्विक चर्चाओं में हर बार यह तय किया जाता है कि दुनिया में कार्बन उत्सर्जन स्वीकार्य स्तर तक लाने के लिए हरसंभव कोशिश की जानी चाहिए। मगर हर बार ताकतवर देश अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए कोई न कोई रास्ता निकाल लेते हैं।

यह सच है कि अफ्रीका और एशिया महाद्वीप में आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी की रेखा के नीचे जी रहा है। करोड़ों लोगों के लिए बिजली की उपलब्धता आज भी एक सपना है। विकासशील और अविकसित देशों का तर्क है कि जिन देशों ने अपने विकास के नाम पर पर्यावरण को बड़ा नुकसान पहुंचाया है और व्यापार के नाम पर दोनों हाथों से चांदी काटी है, उन देशों को चाहिए कि वे ऐसे देशों को आर्थिक और तकनीकी मदद उपलब्ध कराएं जो विकास की दौड़ में पीछे छूट गए हैं और आर्थिक दृष्टि से बहुत संपन्न नहीं हैं। लेकिन उनसे उम्मीद की जा रही है कि वे पर्यावरण संरक्षण के लिए बड़े स्तर पर अपने नागरिकों की सुविधाओं का बलिदान करें। यानी, प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाने के उपायों के विरोध के सबके अपने तर्क हैं और सबके अपने तरीके हैं।

कोरोना महामारी ने हमें बता दिया है कि किस तरह से दुनिया के विविध देशों के बीच पसरी पड़ी आर्थिक खाई आम आदमी के सुखों से खिलवाड़ करती हैं। इस समय दुनिया एक बड़े युद्ध और आर्थिक मंदी की आशंकाओं से एक साथ जूझ रही है। बदली हुई परिस्थितियों ने दुनिया भर में खाद्यान्न उत्पादन को भी प्रभावित किया है। ऐसे में जरूरी है कि हम सब अपने अपने स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशील बनें। किसी भी बड़ी यात्रा की शुरुआत एक छोटे कदम से होती है। तय यह भी है कि किसी बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कुछ छोटे स्वार्थों का त्याग करना होता है। नीतियों और व्यवहार में यदि किंचित दूरदृष्टि को अपनाया जाए तो कोई लक्ष्य कठिन नहीं होता। यह उम्मीद शर्म अल शेख सम्मेलन में पहुंचे देशों से है।


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