इस बात की संभावना नहीं है कि सेना में इसे लेकर असंतोष हो, क्योंकि उन पर भी आर्थिक मजबूरियों का असर पड़ा है. इसके अलावा सरकार ने भी जरूरत पड़ने पर और राशि देने की बात कही है. पिछले वित्त वर्ष में भी सरकार ने ऐसा किया था. डिफेंस बजट के विश्लेषण का मकसद देश के मौजूदा और भविष्य की सुरक्षा जरूरतों को समझना होना चाहिए. इसलिए, मौजूदा बजट आवंटन पर चर्चा करने से पहले देश के वर्तमान सुरक्षा खतरों पर बातचीत करनी चाहिए.
चीन और पाकिस्तान खतरनाक सैन्य गतिविधियों में लगे
बीते सात दशकों से चीन और पाकिस्तान बिना किसी डर के खतरनाक सैन्य गतिविधियों में लगे रहे हैं. इसकी वजह यह है कि वे भारत को एक नरम देश के रूप में देखते हैं और मानते हैं कि भारत एक निश्चित सीमा के बाहर बदले की कार्रवाई नहीं करेगा. इस सोच को बदलना होगा. ऐसा तभी किया जा सकता है, जब हम ऐसा स्ट्रक्चर तैयार करें जिससे हमारी रक्षात्मक रणनीति में आक्रमकता आए. ऐसा करने के दौरान हमें चीन और पाकिस्तान की मिलीभगत से पैदा खतरे को ध्यान में रखना होगा और हिंद महासागर में मल्टीनेशनल मिलिटरी पावर में अपनी भूमिका बढ़ानी होगी. हिंद महासागर में हमारे आसपास मौजूद कई छोटे देश धीरे-धीरे चीन के पाले में जाते जा रहे हैं, हमें इसके सैन्य प्रभावों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. एक उभरती हुई आर्थिक शक्ति के रूप में भारत को एक आक्रामक सैन्य प्रतिरोध पेश करना चाहिए, जिससे किसी तरह के दुस्साहसी कदमों से पैदा हुए हालात से मजबूती से निपटा जा सके.
अभी हमारे पास मुख्य तौर पर एक रक्षात्मक सैन्य संरचना है, जहां अधिकांश हथियार और दूसरे संबंधित संसाधन पुराने हो चुके हैं. पर्वतीय इलाकों में पाकिस्तान और चीन के साथ अक्सर विवाद की स्थिति पैदा होती रहती है, इन इलाकों में भारत की क्षमता पर्याप्त रूप से आक्रमक नहीं है. भारत की ज्यादातर आक्रामकता मुख्य रूप से पाकिस्तान के लिए तैयार की गई है और वे भी अंतरराष्ट्रीय बॉर्डर पर ही. इन सैद्धांतिक और संरचनात्मक विसंगतियों को बिना किसी देरी के ठीक करने की जरूरत है. लद्दाख में चीनी निर्माण तेजी से चल रहा है. इसने हमारी संरचनात्मक कमी को स्पष्ट रूप से उजागर किया है .
भारतीय वायुसेना लड़ाकू स्क्वाड्रन की कमी झेल रही है, जबकि जरूरी क्षमता 42 की होनी चाहिए. और तो और कई स्क्वाड्रन में पुराने उपकरणों की समस्या है. पुरानी पीढ़ी के लड़ाकू विमानों को बदलने की तत्काल जरूरत है. जिससे हवा में हमारी ताकत आक्रमक हो सके. समुद्री इलाकों की सुरक्षा के लिए हमारी नौसैनिक ताकत भी उतनी पर्याप्त नहीं है. केवल एक कैरियर ग्रुप में हमारी क्षमता आक्रमक है. हिंद – प्रशांत क्षेत्र में बढ़ते खतरे को देखते हुए हमें अतिरिक्त कैरियर ग्रुप की जरूरत है, जिससे इन क्षेत्रों में हमारा वर्चस्व स्थापित हो सके. इसके अलावा साइबर, स्पेस और अन्य नॉन-कॉन्टैक्ट हाइब्रिड वार के क्षेत्रों में नई तरह के रक्षा ढांचे की भी जरूरत है. युद्ध जीतने के लिए तकनीकी उन्नतशीलता की जरूरत होती है, जो ऊंची कीमत पर हासिल होती है और इसे लगातार परिवर्तनशील होना चाहिए.
डिफेंसबजट को राष्ट्रीय सुरक्षा और सपोर्ट सिस्टम की इन जरूरतों को पूरा करने वाला होना चाहिए. हां, यह जरूर है कि एक ही बजट में इन जरूरतों को पूरा नहीं किया जा सकता है. लेकिन नए हथियार खरीदने और उन्हें सेना में शामिल करने में इंतजार की घड़ी को कम किया जाना चाहिए. इसी तरह रक्षा व्यवस्था के फाइनेंस को प्राथमिकता केन्द्रित मॉडल से अलग कर समग्र ऑपरेशन क्षमता से जोड़ देना चाहिए. इसके अलावा सिविल सेवा से जुड़े लोगों के अनावश्यक पेमेंट और पेंशन को खत्म करने की जरूरत है. यह बहुत ज्यादा है और इससे पूंजीगत खर्च के लिए आवश्यक धन की उपलब्धता कम होती है.
सिविल सपोर्ट मुहैया कराने वाले दूसरे संस्थानों के लिए अलग से फाइनेंस उपलब्ध कराना चाहिए, जिससे सेना के लिए आवंटित किए जाने वाला फंड साफ तौर से नजर आए और सही तरह से इसका प्रबंधन किया जा सके. ऊपर बताई गई क्षमताओं को हासिल करने लिए सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का न्यूनतम 3 फीसदी हिस्सा सेना के लिए दिया जाना व्यावहारिक होगा. चीन अपने डिफेंस सेक्टर पर करीब 3 फीसदी खर्च करता है, जबकि पिछले साल भारत का खर्च महज 1.58 फीसदी रहा, जबकि दोनों देशों के जीडीपी में अच्छा-खासा अंतर है.
कितनी राशि आवंटित की गई है?
डिफेंस बजट के लिए 5, 25,166.15 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं, जो कि पिछले साल के आवंटन (4.7 लाख करोड़ रुपये) से 47 हजार करोड़ रुपये अधिक है .इस राशि के जरिए इस साल पूंजीगत वस्तुओं की खरीद के लिए अधिक फंड उपलब्ध कराना संभव हो पाएगा. पिछले साल की तुलना में इस साल की बढ़ोतरी भले ही ठीक ठाक हो , लेकिन यह रणनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है. बीते दिनों रक्षा क्षेत्र में बड़ी खरीदारियां की गई हैं और अतिरिक्त राशि से इन देनदारियों को पूरा किया जा सकता है. पिछले बजटों में मांग और आवंटित राशि के बीच अच्छा-खासा अंतर रहा है और इसकी वजह से कुल जरूरी फंड की राशि में इजाफा हुआ है. इस बजट में कुछ हद तक इस मुश्किल पर ध्यान देने की कोशिश की गई है और हमें इस एक सकारात्मक बदलाव के तौर पर देखना होगा.
मौजूदा बजट में सरकार का जोर आयात (रक्षा क्षेत्र में) कम करने पर है और वह चौथी और पांचवी पीढ़ी के हथियारों और उपकरणों के निर्माण में आत्मनिर्भरता हासिल करना चाहती है. निजी क्षेत्र और स्टार्टअप के लिए दिए गए 25 फीसदी के आरएंडडी बजट की काफी जरूरत थी, ताकि देश में इनोवेशन की संस्कृति को बढ़ावा मिल सके और जिससे टेक्नोलॉजी के अंतर को कम किया जा सके. निजी क्षेत्र को सरकारी टेस्टिंग सुविधाओं का इस्तेमाल करने की अनुमति देना भी एक सकारात्मक कदम है. इससे उन्हें बराबरी का मौका मिलेगा.
सरकार कुल पूंजीगत खरीद का 68 फीसदी हिस्सा भारतीय कंपनियों के साथ करना चाहती है. इससे स्थानीय निर्माताओं को प्रोत्साहन मिलेगा और उनके आत्मविश्वास में बढ़ोतरी होगी. साथ ही सरकार ने स्वदेशी रक्षा उत्पादन में 10 फीसदी की वृद्धि करने का लक्ष्य तय किया है. यह लक्ष्य प्राप्त करना संभव नजर आता है. इन नीतियों से न केवल हथियारों के आयात पर होने वाला खर्च कम हो सकेगा. बल्कि, इनसे जरूरी सैन्य ताकत को बढ़ाने में भी मदद मिलेगी. इन नीतियों से देश का राजनीतिक कद बढ़ेगा और साथ ही भूराजनीतिक फायदे होंगे.
एक बात हमें स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए. भारत के पास अपनी ताकत को बढ़ाते हुए विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है. और यह ताकत पर्याप्त बजट आवंटन के जरिए ही हासिल हो पाएगी और इस जरूरत को अब आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है. ऐसा करने के लिए, पूरी राजनीतिक व्यवस्था को एक मंच पर आने की जरूरत है, क्योंकि हमें एक नरम देश की छवि से बाहर निकलकर कठोरता से शक्ति प्रदर्शन करने वाले राष्ट्र बनने की जरूरत है.