बजट 2022: काम नहीं, कल्याण नहीं, सिर्फ संपत्ति...पी चिदंबरम का नजरिया

लेकिन गरीब और मध्यवर्ग यह बजट तैयार करने वालों को माफ नहीं करेंगे।

Update: 2022-02-06 01:56 GMT

समाजवाद के यूटोपियन सपने से बाहर निकल आने के बाद एक प्रगतिशील, समृद्ध और बहुलतावादी राष्ट्र के निर्माण के पीछे तीन प्रमुख कारकों पर मैं विश्वास करता आया हूं : काम, कल्याण और संपत्ति। इनमें से कोई भी दूसरे से कम या ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं हैं-यानी सबका महत्व समान है। हां, संदर्भ में अंतर हो सकता है। पिछले तीस वर्षों में हमने नाटकीय रूप से भिन्न-भिन्न आर्थिक परिदृश्य देखे हैं। वर्ष 1991 में हम दिवालिया होने के कगार पर थे, तो 1997 में भूमंडलीकरण का असर दिखा, वर्ष 2002-03 में हमने सूखे का सामना किया, तो 2005-08 में वैश्विक आर्थिक बढ़ोतरी का हमें लाभ मिला, 2012-13 में हमें नगदी संकट से जूझना पड़ा, 2016-17 में नोटबंदी और सूखे से स्थिति खराब हुई, जबकि 2020-22 को महामारी और आर्थिक मंदी के लिए जाना जाएगा। इनमें से प्रत्येक स्थिति का मुकाबला करने के लिए बजट में अलग और सूक्ष्म नजरिया चाहिए, लेकिन तब भी काम, कल्याण और संपत्ति को महत्व देने का बुनियादी दर्शन नहीं बदलना चाहिए

काम क्यों?
होमो सैपियन्स (मानव जाति) का काम अब सिर्फ शिकार करना और भोजन इकट्ठा करना नहीं है। उनकी इच्छाएं और जरूरतें बढ़ीं, तो उन्होंने काम करने की संस्कृति अपनाई। आधुनिक युग में कामकाज हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है। एक विकासशील अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण संकेतक श्रम बल में शामिल 15 वर्ष और उससे अधिक की आयु के लोग होते हैं। श्रम बल में एलएफपीआर (लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट) या श्रम बल भागीदारी दर किसी देश की आबादी में काम करने वाले या काम मांगने वाले लोगों के अनुपात के बारे में बताती है। अपने देश में इस समय श्रम बल का आंकड़ा 94 करोड़ और एलएफपीआर 37.5 प्रतिशत है, जो करीब 52 करोड़ है (स्रोत : ईएस, परिशिष्ट)।
आज भारत जैसा युवा देश, जिसकी मध्यवर्ती आयु 28.43 वर्ष है, जिस भीषण आर्थिक चुनौती का सामना कर रहा है, वह बेरोजगारी है। वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री बनते समय नरेंद्र मोदी ने इसे समझा था, लेकिन ऐसा लगता है कि इन वर्षों में उनका दर्शन बदल गया है। सालाना दो करोड़ रोजगार देने के मोदी के वादे ने देश के युवाओं में जादू कर दिया था। हालांकि बाद में उन्होंने कहा कि पकौड़ा बेचना भी एक रोजगार है! पिछले सात वर्षों में बेरोजगारी काफी बढ़ी है। महामारी और लॉकडाउन ने बेरोजगारी को और बढ़ाया ही है। 60 लाख एमएसएमई बंद हो गए। लाखों लोगों का रोजगार गया, जिनमें वेतनभोगी कर्मचारी भी थे और अस्थायी कर्मचारी भी। यहां तक कि स्वरोजगार (दर्जी, इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर आदि) के क्षेत्र में लगे लोगों को भी रोजगार से हाथ धोना पड़ा।
बेरोजगारी की मौजूदा दर शहरी क्षेत्र में आठ प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्र में छह फीसदी है। जिन लोगों को नौकरी में रखा भी गया, उनके वेतन या मजदूरी में कटौती कर दी गई। पिछले दो साल में 84 फीसदी परिवारों को अपनी आय में कमी का सामना करना पड़ा है। इस विकट पृष्ठभूमि में बजट में अगले पांच साल में 60 लाख नौकरियों का वादा किया गया है। यानी सरकार सालाना 12 लाख रोजगार देने का वादा कर रही है, जबकि श्रम बल में हर साल 47.5 लाख लोग जुड़ते हैं (स्रोत : श्रम ब्यूरो)। मेरा निष्कर्ष यह है कि आने वाले दिनों में खासकर कम पढ़े-लिखे लोगों की बेरोजगारी दर बढ़ेगी।
कल्याण क्यों?
कल्याण एक व्यापक धारणा है, जिसमें आजीविका, नौकरी, भोजन, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा, विश्राम और मनोरंजन जैसे पहलू समाहित हैं। कल्याण से जुड़े काम इन मुद्दों को संबोधित करने के लिए किए जाते हैं। उदाहरण के लिए, मनरेगा की शुरुआत आजीविका की चुनौती का समाधान निकालने के लिए की गई, जिन लोगों को भोजन उपलब्ध नहीं, उनकी समस्या का समाधान करने के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनाया गया, ऐसे ही स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी समस्या दूर करने के लिए मुफ्त जन स्वास्थ्य सेवाओं और स्वास्थ्य बीमा की शुरुआत की गई, शिक्षा क्षेत्र में व्याप्त चुनौती के समाधान के लिए शिक्षा का कानून लाया गया, आदि। बजट ने क्या किया है? कृपया आवंटन (तालिका में) पर ध्यान दीजिए :
मद में सब्सिडी/आवंटन 2021-22 2022-23 (करोड़ रुपये में)
पेट्रोलियम 6,517 5,813
उर्वरक 1,40,000 1,05,000
खाद्यान्न 2,86,219 2,06,481
मिड डे मील योजना 11,500 10,233
फसल बीमा 15,989 15,500
मनरेगा 98,000 73,300
स्वास्थ्य 85,915 86,606
कुल सब्सिडी बिल में 27 फीसदी की भारी कटौती की गई है!
बजट का संदेश है-बेहद गरीब लोगों को नकद हस्तांतरण या मुफ्त राशन नहीं; सामाजिक सुरक्षा पेंशन में कोई वृद्धि नहीं, कुपोषण, बौनेपन और कम वजन की समस्या के समाधान के लिए कोई योजना नहीं; पिछले दो साल में स्कूली बच्चों की ज्ञान प्राप्ति के क्षेत्र में जो भारी नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई करने के लिए कुछ नहीं; मध्यवर्ग को कर में राहत नहीं; और उपभोक्ताओं को जीएसटी में कोई छूट नहीं। मेरा निष्कर्ष है : कल्याण की भावना को बाहर फेंक दिया गया है।
संपत्ति क्यों?
मैं संपत्ति निर्माण का समर्थन करता हूं। संपत्ति नई पूंजी और आखिरकार नए निवेश का साधन होती है। कर चुकाने के बाद बढ़ी हुई आय से संपत्ति बढ़ती है। आय और संपत्ति निवेश, खतरा मोल लेने की प्रवृत्ति, नवाचार, शोध और विकास, दान तथा दूसरे उपयोगों को बढ़ाते हैं। मैं संपत्ति निर्माण का विरोधी नहीं हूं, बल्कि संपत्ति के वैसे संचय का विरोधी हूं, जो समाज में असमानता पैदा करता है। कुछ अध्ययनों के मुताबिक, भारत दुनिया के सबसे असमान देशों में एक है। गहन पूंजी निवेश, उन्नत विज्ञान और तकनीकी, डिजिटाइजेशन और समुन्नत पारिस्थितिकी से तैयार जिस बजट में पूंजी, तकनीकी और श्रम को बाहर रखा जाता है, और जो कि लाखों गरीब लोगों के जीवन और आजीविका के लिए जरूरी है, उसे मैं गरीबों का मजाक ही मानता हूं। अगर गरीबों की मदद करने के लिए ज्यादा संसाधनों की जरूरत है, तो धनी लोगों पर टैक्स लगाना सही रवैया है-भारत में अत्यधिक समृद्धों की संख्या 142 है, जिनकी कुल संपत्ति 53,00,000 करोड़ है।
गरीबों की मदद के लिए इस संसाधन का इस्तेमाल किया जा सकता है। मेरा निष्कर्ष : यह एक पूंजीवादी बजट है, जिसमें गरीबों की उपेक्षा की गई है। मीडिया और संसद में चल रही बहस ने समाज के सुविधासंपन्न और अभावग्रस्त क्षेत्रों के बीच की खाई उजागर कर दी है। पूंजी बाजार भले ही इस बजट को सलाम करे, लेकिन गरीब और मध्यवर्ग यह बजट तैयार करने वालों को माफ नहीं करेंगे।

सोर्स: अमर उजाला


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