टूटते रिश्ते, छूटते रिश्तेदार

बड़ी अजीब घटना थी वह। करीब के एक रिश्तेदार के बेटे की शादी हुई। शादी के बाद वह अपनी पत्नी के साथ हमारे घर मिलने आया। पहले ऐसा रिवाज था।

Update: 2022-07-06 05:51 GMT

हेमंत कुमार पारीक; बड़ी अजीब घटना थी वह। करीब के एक रिश्तेदार के बेटे की शादी हुई। शादी के बाद वह अपनी पत्नी के साथ हमारे घर मिलने आया। पहले ऐसा रिवाज था। शादी के बाद नजदीकी रिश्तेदार नए जोड़े को निमंत्रण देकर घर बुलाते थे। कुछ हद तक अब भी यह रिवाज बना हुआ है। हालांकि अब बहुत सारे रीति-रिवाज दरकिनार होते जा रहे हैं। उच्च वर्ग में तो यह प्रथा कब की खत्म हो चुकी है। मैं बड़ा और तू छोटा की खाई बीच में आ गई है। वर्ग में वर्ग बन गए हैं। इसका आधार पैसा, पद और जायदाद बनता जा रहा है। मगर मध्यवर्ग तथा निम्नवर्ग में अब भी नवविवाहित जोड़े को घर बुला कर भोज देने की परंपरा कहीं-कहीं देखने को मिल जाती है।

वह चूंकि बेहद नजदीकी रिश्ता था, इसलिए रिश्तेदार के बेटे के लिए दावत का आयोजन किया गया। रिश्तेदार भी उच्च पद पर थे और आर्थिक रूप से संपन्न। इस बात का ध्यान रखते हुए आयोजन किया गया था। बहरहाल, उनका बेटा सपत्नीक आया। दावत खत्म होने के बाद परिवार के सभी सदस्य एकत्र हुए थे। परिवार के सदस्यों ने वर और वधू को यथोचित भेंट दी। बातों-बातों में बहू ने बताया कि उसके सगे रिश्तेदार इसी शहर में कहीं रहते हैं। अम्मा के सगे मामा के बेटे हैं। बात कुछ और आगे बढ़ी। फिर बहू ने मेरे बड़े भाई का नाम लिया। परतें खुलने लगीं। मैं तो समझ गया था, इसलिए हंसी आ गई। वह रिश्ते में मेरी भानजी हुई। फिर क्या था, हंसी का फव्वारा छूट गया। इतना नजदीकी रिश्ता होते हुए भी वह और मैं दोनों एक-दूसरे से अनभिज्ञ थे। हम दोनों एक-दूसरे का चेहरा पहली बार देख रहे थे।

सालों पहले जब मैं गांव में रहता था, रक्षाबंधन पर बुआजी नियम से राखी भेजती थीं। पर धीरे-धीरे दूरियां बढ़ती गर्इं। अब सोचते हैं कि ये दूरियां किस कारण से बढ़ीं? शायद आपसी व्यवहार और मेल-मुलाकात न होने की वजह से। वरना, मुझे याद है बचपन का वह दौर, जब शादियों में परिवार के दूर-दूर से रिश्तेदार आया करते थे। शादी से महीनों पहले मनुहार भरी पातियां लिखी जाती थीं। उन पर हल्दी-चावल लगाए जाते थे। वह सामान्य दस पैसे का पोस्टकार्ड हुआ करता था, जिस पर शादी के कार्यक्रम हस्तलिखित होते थे। जिसकी लिखावट अच्छी होती वह खूब जमा कर पत्र लिखा करता था। कई दिन लगते पत्र लिखने में। उन पत्रों की लिखावट देखते ही मन खुश हो जाता। कहीं-कहीं जवाबी पोस्टकार्ड का भी चलन था। मगर समय बदला और पोस्टकार्ड पर छपाई होने लगी। समय की बचत के लिए यह नया तरीका अपनाने लगे लोग।

हल्दी-चावल देने का मतलब अनुनय-विनय पूर्वक शादी में शामिल होने का निमंत्रण होता है। अर्थ यह कि कोई पूर्वाग्रह हों तो उन्हें भुला दिया जाए। इसीलिए कभी-कभी विवाद की स्थिति में हल्दी-चावल का मुहावरे में चलन है। जमाना बदल गया। पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय पत्र तथा लिफाफे गायब हो गए। वरना तो किसी के पत्र के इंतजार में हम पोस्टमैन की राह ताकते थे। फिल्मी गानों में भी पोस्टमैन ने जगह बनाई है। जैसे, डाकिया डाक लाया…, चिट्ठी आई है…। मगर आजकल पोस्टमैन यदाकदा नजर आते हैं। वरना तो पहले हिंदी और अंग्रेजी साहित्य के प्रश्नपत्रों में पोस्टमैन भी निबंध का एक विषय हुआ करता था। अब डिजिटल दौर है।

सोचकर आश्चर्य होता है कि कभी पोस्टकार्ड भी लिखे जाते थे। कुछ वर्ष पूर्व मैं गांव गया था। इतवारी बाजार में घूमते-घूमते नजर उस वक्त के पोस्ट आफिस पर पड़ी। वह खंडहर में बदल गया है। कभी जहां सुबह आठ बजे पैर रखने की जगह नहीं होती थी, अब सुनसान भूत बंगले-सा दिखता है। खिड़की-दरवाजे गायब हैं। टूटी-फूटी दीवारों पर काई और हरी घास का साम्राज्य है। कभी मैं खुद दोस्त-यारों के साथ वहां सुबह-सुबह एकाध चक्कर लगा लिया करता था। सीधे पोस्ट आफिस से चिट्ठियां ले आता था। हां, एक बात तो सुखद दिखी। उसकी दीवार से सट कर खड़ा पीपल का पेड़ अभी तक सुरक्षित है। उसे सही सलामत देख खुशी जरूर हुई।

फिलहाल पोस्ट आफिस, पोस्टमैन और पोस्टकार्ड भूली हुई दास्तान हैं। लोगों के हाथ में मोबाइल है। यह हर मर्ज की दवा है। इस कारण लोगों का आपस में मिलना-जुलना कम हो गया है। शादी-ब्याह भी अब खानापूर्ति लगते हैं। बुआ का लड़का विदेश में है। लिव-इन में रहता है। जो गया, सो लौटा नहीं। मां-बाप उसकी शादी के सपने देखते-देखते संसार से विदा ले गए। रिश्ते और रिश्तेदारी की तो बात ही मत पूछिए। आजकल शादियों में उनकी उपस्थिति की कोई परवाह ही नहीं करता। लड़की-लड़का, दोनों के मां-बाप और साथ में अदद एक पंडित, बस काम निबट गया। निमंत्रण पत्रों का चलन खत्म हुआ। निमंत्रण पत्र का एक नमूना चुना और उसे वाट्सएप पर डाल कर इतिश्री हुई। कोई आए तो ठीक और न आए तो ठीक, अपनी बला से।…


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