आदित्य नारायण चोपड़ा: भारत वर्षों से इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ दुनियाभर में आवाज बुलंद करता आ रहा है लेकिन वैश्विक शक्तियों ने इस पर चुप्पी साधे रखी। आतंक कश्मीर में हो या पंजाब में या फिर मुम्बई में सीरियल बम बलास्ट हो या आतंकी हमले ब्रिटेन और अमेरिका ने यही कहा था कि भारत में आतंकवाद उसके भीतर की समस्याओं की देन है। इस्लामी आतंकवाद पर चुनिंदा रुख अपनाने वाले अमेरिका को 9/11 हमले के बाद आतंकवाद की तपिश महसूस हुई, तभी उसको अहसास हुआ कि दर्द क्या होता है? फिर भी उसमें अफगानिस्तान में बैठे लादेन से बदला लेने के लिए आतंकवादी देश पाकिस्तान को अपना मित्र बना लिया था। यह अपने आप में हास्यास्पद ही था कि आतंकवाद को जड़ से मिटाने का संकल्प लेने वाला अमेरिका आतंकवाद की खेती करने वाले पाकिस्तान को अपने साथ ले। इसका खामियाजा भी अमेरिका को भुगतना पड़ा।अब जाकर ब्रिटेन को महसूस हुआ है कि इस्लामी आतंकवाद से उसे भी बहुत बड़ा खतरा पैदा हो चुका है। ब्रिटेन सरकार की आतंकवाद को रोकने संबंधी एक योजना की समीक्षा में कश्मीर को लेकर ब्रिटेन के मुसलमानों के कट्टरपंथी होने और संभवतः खतरनाक खालिस्तान समर्थक अतिवाद की बढ़ती चिन्ता के रूप में चिन्हित किया गया है। समीक्षा रिपोर्ट में यह चेतावनी दी गई है कि कश्मीर के संबंध में भारत विरोधी भावनाएं भड़काने के संदर्भ में पाकिस्तान की बयानबाजी ब्रिटेन के मुस्लिम समुदाय को प्रभावित कर रहे हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस्लामवादी आने वाले वर्षों में पैदा हो रही नफरत का फायदा उठा सकते हैं। ब्रिटेन में आतंकवाद के अपराधों के कई ऐसे दोषी पाए गए हैं जिन्होंने पहले कश्मीर में लड़ाई लड़ी थी। इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो बाद में अलकायदा में शामिल हो गए थे। आखिरकार ब्रिटेन ने स्वीकार कर ही लिया कि उसके लिए इस्लामी कट्टरपंथ बड़ा खतरा बन चुका है। उसने यह भी स्वीकार किया कि सिख कट्टरपंथियों की संख्या भले ही मुस्लिम कट्टरपंथियों की तुलना में कम है लेकिन भविष्य में यह देश के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं।दुनियाभर में यदि कहीं पर भी आतंकवाद है तो उसके पीछे इस्लाम की सुन्नी विचारधारा के अंतर्गत वहाबी और सलफी विचारधारा को दोषी माना जाता है। इनका मकसद है जिहाद के द्वारा धरती को इस्लामिक बनाना। आतंकवाद अब किसी एक देश या प्रांत की बात नहीं रह गया है। यह अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गठजोड़ कर चुका है और इसके समर्थन में कई मुस्लिम राष्ट्र और वामपंथी ताकते हैं। सऊदी, सीरिया, इराक, अफगानिस्तान, कुर्दिस्तान, सूडान, यमन, लेबनान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, इंडोनेशिया और तुर्किये जैसे इस्लामिक मुल्क इनकी पनाहगाह हैं। इस्लामिक आतंकवाद की समस्या व उसकी जड़ के असली पोषक तत्व सिर्फ सऊदी अरब, चीन, ईरान ही नहीं हैं, इसके समर्थक गैर मुस्लिम मुल्कों में वामपंथी, समाजसेवी और धर्मनिरपेक्षता की खोल में भी छुपे हुए हैं। इनके कई छद्म संगठन भी हैं, जो इस्लामिक शिक्षा और प्रचार-प्रसार के नाम की आड़ में कार्यरत हैं। इस बात पर लम्बे समय से बहस जारी है कि क्या आतंकवाद को किसी धर्म विशेष से जोड़ना जायज है। अक्सर बुद्धिजीवी यह कहते हैं कि महज मुट्ठीभर राह से भटके लोगों की वजह से पूरे इस्लाम धर्म को बदनाम नहीं किया जाना चाहिए लेकिन इस सच्चाई को अब स्वीकार कर लेना चाहिए कि इस्लाम का हिंसक उत्परिवर्तन भी इस्लाम है। जो कि असामान्य रूप से विषैला और ताकतवर है।संपादकीय :इंसान हों या जानवर- आशियाना सबको चाहिएसंसदीय प्रणाली मजबूत रहेगैस पाइपलाइन : अमेरिका-रूस में ठनीराज. का जन- हितकारी बजटराष्ट विकास मे क्षेत्रीय योगदानसमाज का वीभत्स चेहराइस्लाम में विश्वास रखने वालों को भयावह गरीबी व भुखमरी में जीना स्वीकार है पर मजहबी जिद और जुनून से बाहर निकलना नहीं। वे लड़ते रहेंगे तब तक जब तक उनके कथित शरीयत का कानून लागू न हो जाए, जब तक दुनिया का अंतिम व्यक्ति भी इस्लाम कबूल न कर ले, वे लड़ते रहेंगे क्योंकि उनका विस्तारवादी-वर्चस्ववादी कट्टर इस्लामी चिन्तन उन्हें लड़ने की दिशा में उत्प्रेरित करता है। मदरसों और मस्जिदों में छोटे-छोटे बच्चों के दिल-दिमाग में कूट-कूट कर यह (अ) ज्ञान भरा जाता है कि यदि वे मजहब के लिए लड़ते हुए कुर्बान हुए तो जन्नत में 72 हूरें उनकी प्रतीक्षा कर रही होंगी, जो अक्षत यौवना होंगी, जहां मदिरा निर्झर प्रवाहित हो रहा होगा, जहां तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन-पकवान, रसीले फल-फूल-द्रव्य से उनका स्वागत किया जाएगा और यदि जीते तो माले-गनीमत के हिस्सेेदार होंगे। जो-जो उन्हें इस धरती पर नहीं नसीब हुआ, वह सब जन्नत में नसीब होगा। एक ही दिशा में सोचने के लिए प्रेरित-अनुकूलित कर उनकी स्वतंत्र चिन्तन-मनन-विश्लेषण की चेतना कुंद कर दी गई है। मजहबी तालीम के द्वारा बाल-वृद्ध-युवा, स्त्री-पुरुष सब में जिहाद का यह जहरीला जुनून पैदा करने का निरंतर प्रयास किया गया है। उन्हें जिहाद और जन्नत का सपना थमाकर एक काल्पनिक संसार में भटकने व लड़ने-मरने के लिए छोड़ दिया गया है। अब ऐसों से भला कोई सभ्य समाज कब तक लड़ता रहेगा। यद्यपि ब्रिटेन ने इस्लामी कट्टरपंथ को रोकने के लिए रिपोर्ट में कुछ उपायों की सिफारिश की है लेकिन यह रिपोर्ट उन देशों के लिए एक चेतावनी है जो देश इस्लामी आतंकवाद को संरक्षण देते हैं। वास्तव में वैश्विक स्तर पर लड़ाई मुस्लिमों से नहीं है बल्कि उस कट्टरपंथी विचारधारा से है जो केवल स्वयं को सर्वोच्च और दूसरे को काफिर मानती है। कट्टपंथी विचारधारा को समाप्त करने के लिए एकजुट होकर काम करना होगा और इस लड़ाई में मुस्लिम समुदाय का भी साथ लेना होगा। मुस्लिम समुदाय को इस बात का अहसास होगा कि कट्टर धर्मांधता खुद उन्हें ही निशाना बना रही है।
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