BLOG: भारत भवन में किताबों के साथ के वो तीन दिन
वैसे तो हमारे भोपाल की खूबसूरती का कोई जवाब नहीं मगर ये खूबसूरती तब और बढ़ जाती है
ब्रजेश राजपूत,
वैसे तो हमारे भोपाल की खूबसूरती का कोई जवाब नहीं मगर ये खूबसूरती तब और बढ़ जाती है जब बडे़ तालाब के किनारे बसे भारत भवन में कोई शाम रोशनी से सजी होती हो. बाहर तालों में ताल भोपाल ताल की शांत सतह और भारत भवन के अंतरंग सभागार में आज के दौर के चर्चित लेखक विक्रम संपत की मधुर शांत आवाज में अपनी बात कहना कि सावरकर को इतने सालों जो कहा गया वो नहीं बल्कि इतिहास की किताबों से संदर्भों से खोज कर जो मैंने लिखा उसे पढ़िये और विचार करिये कि वो क्रांतिकारी वीर थे या कुछ और मगर पढिये फिर तय करिये.
गाढ़े लाल रंग के कुर्ते पर क्रीम कलर की बंडी पहन कर आये विक्रम को अंतरंग में बैठे लोग अपने सवालो के साथ सुन रहे थे. तो दूसरे वागर्थ सभागार में एवरेस्ट फतह करने वाले आईएएस अफसर रवींद्र कुमार से पूछा जा रहा था कि जिंदगी में सब कुछ पद प्रतिष्ठा होने के बाद दो बार एवरेस्ट में जान जोखिम में डालने क्यों गये. इस गूढ़ सवाल का सरल जवाब रवींद्र कुमार का था जोखिम कहां नहीं है मगर जिंदगी में अपने आपको मुश्किलों से परखते रहना चाहिये. एवरेस्ट पर दो बार चढने के बाद पता चलता है कि इतनी तरक्की के बाद भी हम सब प्रकृति के आगे बौने हैं.
यही बौनेपन का अहसास हमें तब होता है जब किसी लेखक का उसकी किताब पर हम सुनते हैं. सूचना क्रांति के इस दौर में हमें लगता है कि हम बहुत जानते हैं मगर सच ये है कि बहुत कुछ नहीं जानते. भोपाल के भारत भवन में पिछले हफ्ते हुये भोपाल लिटरेचर एंड आर्ट फेस्टिवल के अधिकतर सत्रों में बैठकर सुनने पर ये अहसास गहराता था. और तब लगता था कि कुछ और किताबें पढनी चाहिये. मोबाइल को परे रखकर किताबों से दोस्ती बढ़ानी चाहिये. खरीद कर सेल्फ में रखी किताबों को फिर निकालना चाहिये. इस फेस्टिवल में तीन दिनों में करीब साठ से ज्यादा लेखकों ने अपनी किताबों पर पाठकों से रूबरू होकर चर्चा की. कुछ विदेशी लेखक जो आ ना सके उन्होंने आनलाइन भी अपने सेशन लिये.
इन तीन दिनों में डिफेंस, डिप्लोमेसी, सोशल मीडिया, पर्यावरण, कोविड, लाकडाउन, आध्यात्म, आत्मकथाएं, इतिहास, फिल्म और पत्रकारिता पर लिखी गयी किताबों के लेखकों से भोपाल के लोग रूबरू हुये. उनको सुना और सवाल किये. कुछ लेखक तो कभी भुलाये ना जा सकेंगे जब ब्रुसेल्स एयरपोर्ट में 2016 को हुये आतंकवादी हमले में घायल हुयी जेट एयरवेज की कर्मचारी निधि छापेकर ने हादसे का वर्णन किया तो सुनने वालों की आंखे भर उठीं. आतंकी हमले मे निधि जिंदा तो बच गयीं मगर खडे होकर चलने फिरने के लिये बीस से ज्यादा सर्जरी करवानी पडी. निधि अपनी किताब अनब्रोकन पर बात करने आयीं थीं. ये जिंदगी का संघर्ष था तो पेशे की कशमकश की कहानी कमर्शियल पायलट मनीषा मोहन ने सुनाई. भोपाल के बैरागढ में पली बढी मनीषा ने बचपन से घर के उपर से गुजरते प्लेन को देखा और पायलट बनने की ठानी. पहले पायलट बनने ओर फिर वहां रह कर पायलट बने रहने के संघर्ष की दास्तान सुन कर लगा कि मनीषा किस गजब मिटटी की बनीं हैं.
कोविड की पहली लहर में जब हमें घरों में कैद किया जा रहा था तब प्रशासनिक अफसर सडकों पर थे. हमारे आसपड़ोस में एक कोविड मरीज आता था तो कैसी बैचेनी होती थी मगर जिनके जिम्मे पूरा शहर और जिला होता था उन्होंने कैसी कोविड के दौरान रातें जाग कर गुजारी आइएएस अफसर तरूण पिथोडे की किताब बैटल अगेंस्ट कोविड पर हुयी चर्चा में सामने आया. पिथोडे ने बताया कि जब अचानक शहर में कोविड के नंबर बढे तो लगा कहां जाकर मुंह छिपा लें मगर घर परिवार से अलग गेस्ट हाउस में एसएसपी इरशाद वली के साथ रहकर शहर को कोविड से कैसे बचाया बहुत सारी चौंकाने वाली बातें पता चलीं. उनके मुताबिक सबसे बडी चुनौती लोगों को घरों से ना निकलने देना और उनके लिये घरों तक जरूरी सामान पहुंचाना रहा.
आयोजन के प्रमुख राघव चंद्रा ने कहा कि कोविड की तीसरी लहर के चलते जनवरी का फेस्टिवल मार्च के अंत में भारी गर्मी के बीच करना पडा मगर अच्छी संख्या में आये लोगों ने बताया कि सोशल मीडिया के इस दौर में भी भोपाल आज भी साहित्य संस्कृति और किताबों का शहर बचा हुआ है. वरिष्ठ पत्रकार और लेखक अभिलाष खांडेकर भी नयी बात कहते हैं कि मकसद ये था कि लोगों को बतायें कि कितना कुछ अलग अलग विषय पर लिखा जा रहा है लेखकों को सुनिये और पढिये, कुछ हद तक हम अपने मकसद में कामयाब रहे क्योंकि पूरे फेस्टिवल में युवाओं की भागीदारी अच्छी रही. यही इस आयोजन की बडी बात रही.