उनके नामों का अब खुलासा करना बेमानी है। सभी दस्तावेजों के जरिए उद्घाटित किया गया है कि किस तरह देश से पैसा निकाल कर विदेश भेजा जाता रहा है। कर से बचने के लिए ऐसा किया जाता रहा है और भारतीय पैसा फर्जी और काग़ज़ी कंपनियों में निवेश किया जाता रहा है। विदेशों के कर-स्वर्ग तक पैसा अमूमन हवाला के जरिए भेजा जाता है। कुछ और भी तरीके होंगे। कर बचाकर देश की अर्थव्यवस्था को ही चूना लगाया जाता रहा है और धन्नासेठ अपनी संपत्तियों को कई गुना बढ़ाते रहे हैं। यह संगीन आर्थिक अपराध है। भारत सरकार के कथनानुसार, बीते दो खुलासों में 20,352 करोड़ रुपए की अघोषित आय सामने आई है। यह आंकड़ा ज्यादा भी हो सकता है, क्योंकि सभी संबद्ध दस्तावेज सरकार को उपलब्ध नहीं रहे हैं। यह जरूर देखा गया है कि इन खुलासों के बाद सरकार अपनी नियामक गिरफ्त को और अधिक मजबूत करने पर बाध्य हुई है। कितने कर-चोर और कितनी काली कमाई भारतीय कानूनों के तहत गिरफ्त में ली जा सकी है, इसका कोई पुष्ट खुलासा सरकार ने नहीं किया है। कर-चोरी की दृष्टि से 90 देश ऐसे हैं, जिन्हें 'कर-स्वर्ग' माना गया है। अमरीका, ब्रिटेन, यूरोप के विकसित और उन्नत देश भी ऐसे पनाहगाहों से अछूते नहीं हैं। ज्यादातर कर-चोरों ने ब्रिटिश वर्जिन आईलैंड्स की काग़ज़ी कंपनियों में पैसा लगा रखा है। इन देशों में कर की व्यवस्था या तो नगण्य है अथवा शून्य फीसदी है। ऐसा निवेश लगातार कई काग़ज़ी कंपनियों में किया जाता है और फिर एक फर्जी कंपनी के खाते में रख दिया जाता है। ये कंपनियां सिर्फ काग़ज़ों पर ही होती हैं।
भारत से उद्योगपति अनिल अंबानी, किरण मजूमदार शॉ, रीयल एस्टेट के बेताज बादशाह हीरानंदानी से लेकर क्रिकेट के भगवान एवं 'भारत रत्न' से सम्मानित सचिन तेंदुलकर, आयकर के पूर्व मुख्य आयुक्त और नेफेड के पूर्व अतिरिक्त प्रबंध निदेशक आदि 300 से ज्यादा नाम सामने आए हैं। सचिन राज्यसभा सांसद भी हैं। करोड़ों-अरबों डॉलर फर्जी विदेशी कंपनियों में लगाए गए हैं। इन सभी नामों और चेहरों के मकसद और मंसूबे एक ही हो सकते हैं कि कर बचाया जाए, लिहाजा कर की चोरी की जाए। हालांकि सभी विदेशी खाते 'अवैध' नहीं होते। ये व्यवस्था के ही छिद्र हैं, जिनका दुरुपयोग कर पैसा बाहर निवेश किया जाता है। उसके लिए बैंकिंग नेटवर्क का भी इस्तेमाल किया जाता है, ताकि कर-स्वर्गों में ग्राहक की आमदनी को छिपाया जा सके, लिहाजा कर-भुगतान से भी बचा जा सके। कर-स्वर्गों की व्यवस्था 'गोपनीय' होती है, लिहाजा पत्रकारांे ने गोपनीय दस्तावेज कैसे हासिल किए, उनकी छंटनी कैसे की और फिर निष्कर्ष तक कैसे पहुंचे, यह वाकई दुस्साध्य काम है। 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के दौरान गोपनीय व्यवस्था को धक्का दिया गया था। जी-20 देशों के नेताओं ने भी 2009 में बैंकिंग गोपनीयता को समाप्त करने का संकल्प लिया था, नतीजतन 2013 में तय किया जा सका कि देश बैंकिंग और गोपनीय सूचनाओं को मानकों के आधार पर साझा करेंगे। बहरहाल भारत के संदर्भ में ऐसा कितना हो पाया, उसकी जानकारी नहीं है, लेकिन प्रकाशित दस्तावेज बेनकाब कर रहे हैं कि देश में कौन कर-चोर है और कितनी काली-कमाई कर देश को ठगा जा रहा है। भारत सरकार को ऐसे कुलीन और काले चेहरों की धरपकड़ के लिए एक बहुएजेंसी जांच दल गठित करना चाहिए।