तीन कानूनों से आगे की बात
बेशक यह कहा जा सकता है कि कृषि कानूनों को लागू करने और उनको रद्द करने से जमीन पर बहुत कुछ नहीं बदला है
हिमांशु। बेशक यह कहा जा सकता है कि कृषि कानूनों को लागू करने और उनको रद्द करने से जमीन पर बहुत कुछ नहीं बदला है, लेकिन इससे कम से कम इतना तो हुआ ही है कि हमारे कृषि संकट के बारे में जन-जागरूकता बढ़ी है और उनका समाधान निकालने के लिए ठोस प्रक्रिया की आवश्यकता सभी ने महसूस की है।
अब यह इतिहास है कि नवंबर की 19 तारीख को अचानक ही अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने का एलान किया, जिनको पिछले साल सितंबर में संसद से पारित किया गया था। शीतकालीन सत्र के पहले ही दिन उन कानूनों को वापस भी ले लिया गया। जिस तरह से पिछले साल इन कानूनों को पास किया गया था, ठीक उसी तरह अब बिना किसी चर्चा के उनको निरस्त भी कर दिया गया। ऐसे में, उनको क्यों पेश किया गया और क्यों रद्द किया गया, यह अब भी आधिकारिक तौर पर एक अनसुलझा सवाल है।
बहरहाल, संसदीय प्रक्रिया से इन कानूनों को आगे बढ़ाने से पहले ही इनका वापस होना तय था। सर्वोच्च अदालत ने उनको लागू करने पर रोक लगा रखी थी। तथ्य यही है कि सरकार उन तीनों कृषि कानूनों के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं से पीछे हटी है। यह आवश्यक वस्तु अधिनियम (ईसीए) के इस्तेमाल से स्पष्ट है, जो उन कानूनों में एक था, जिनको संशोधित किया गया था। न सिर्फ कुछ मामलों में ईसीए का इस्तेमाल असंगत बना दिया गया था, बल्कि यह भी दिखता है कि केंद्र सरकार उन प्रावधानों को लाने के लिए तैयार हो गई थी, जिनसे यह कानून खत्म हो जाता।
हालांकि, यह भी स्पष्ट है कि सरकार की अपनी हिचकिचाहट से कहीं अधिक कानूनों की वापसी मुख्यत: किसान संघों के विरोध के कारण हुई। एक साल से अधिक समय से उनका अनवरत प्रदर्शन चल रहा था। इसमें उन्होंने अपनी जान की भी परवाह नहीं की। खुद प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में यह माना कि सरकार प्रदर्शनकारी किसानों को तीनों कानूनों की खूबियों के बारे में समझाने में विफल रही। पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में आने वाले दिनों में होने वाले चुनावों ने भी कानून-वापसी की राह आसान की होगी, क्योंकि यहां आंदोलन खासा मजबूत था।
किसान सरकार के रवैये से नाराज थे। केंद्र ने जिस तरह से तमाम हितधारकों, किसान संगठनों के प्रतिनिधियों और सांसदों के विरोध के बावजूद बिल को आगे बढ़ाया, वह तरीका किसानों को रास नहीं आया। ये कानून उस वक्त किसानों पर थोपे गए, जब देश महामारी से जूझ रहा था और अधिकांश क्षेत्रों में मांग में कमी के कारण हमारी अर्थव्यवस्था सिकुड़ रही थी। मुमकिन है कि कानूनी प्रक्रिया को पूरा करने में की गई जल्दबाजी और फिर, किसान आंदोलन को 'राष्ट्र-विरोधी' और 'विदेशी धन से पोषित आंदोलन' के रूप में बदनाम करने की कोशिशों ने किसानों को उत्तेजित किया हो। फिर भी, असली कारण तो कानूनों के प्रावधान थे। उनमें न केवल कम उत्पादन-कीमत और घटते लाभ जैसी किसानों की मुख्य चिंताएं शामिल नहीं थीं, बल्कि कृषि-उत्पाद मार्केटिंग और वादा खेती पर निजी क्षेत्र को खुला हाथ देने से किसानों को अपनी गरीबी और बढ़ती नजर आ रही थी।
किसान लगभग पांच वर्षों से अलग-अलग राज्यों में प्रदर्शन कर रहे हैं। कृषि कानूनों की महज वापसी से उनकी चिंता खत्म होने वाली नहीं है। किसानों के एक वर्ग पर कानूनों की खूबियों का एहसास न होने के लिए दोष मढ़ देना न केवल गलत कृत्य है, बल्कि यह कृषि क्षेत्र की सच्चाई से आंखें मूंद लेना है। लागत व्यय बढ़ने और कम कीमत मिलने जैसी कठिनाइयों से कृषि क्षेत्र लगातार जूझ रहा है। इसके साथ ही, साल 2016-17 से हमारी अर्थव्यवस्था में मांग में गिरावट भी आई है। इनमें से अधिकांश चिंताएं पिछले एक साल से और ज्यादा बढ़ गई हैं, क्योंकि डीजल, बिजली और खाद पर लागत बिक्री दर की तुलना में कहीं ज्यादा बढ़ी है। हाल ही में जारी ग्रामीण-मजदूरी के आंकड़े और किसानों की स्थिति पर हमारा आकलन इसकी पुष्टि करता है कि ग्रामीण मजदूरी में गिरावट आई है और खेती से होने वाली आमदनी घटी है।
किसान कृषि क्षेत्र में सुधार के विरोधी नहीं हैं। आम धारणाओं के विपरीत, वे तो सुधार के हिमायती रहे हैं। सुधार के कई उपाय तो उन्होंने खुले दिल से स्वीकार भी किया है, जिनमें कृषि उत्पादन विपणन समिति (एपीएमसी) अधिनियम में राज्य और केंद्र के स्तर पर हुए बदलाव शामिल हैं। इसके अलावा, न्यूनतम समर्थन मूल्य को गारंटी बनाने की उनकी मांग भी एक के बाद दूसरी केंद्र सरकारों द्वारा किए गए वादों के अनुरूप ही है। सरकारें उनसे स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक उचित पारिश्रमिक मूल्य देने का वादा करती रही हैं। हालांकि, लाभकारी कीमतों को सुनिश्चित करने का कौन-सा तरीका बेहतर होगा, इस पर अलग-अलग राय हो सकती है, लेकिन एमएसपी व्यवस्था में सुधार की जरूरत से कतई इनकार नहीं किया जा सकता। जिन समस्याओं के समाधान की दरकार है, उनमें एमएसपी-निर्धारण में राजनीतिक दखल को रोकना, एमएसपी से जुड़ी खरीद-प्रक्रिया में फसलवार व क्षेत्रवार असंतुलन को खत्म करना, वितरण व भंडारण को कमजोर बनाने वाली नीतियों को बदलना और सीमा शुल्क व व्यापार प्रतिबंधों में अनुचित दखल को रोकना शामिल हैं। ये सभी समस्याएं सबको पता हैं और कई कमेटियों में इस पर बहस भी हो चुकी है।
इसी प्रकार, केस-रिसर्च प्राथमिकताओं, खेती से जुड़ी अन्य सेवाओं के विस्तार और निवेश संबंधी प्राथमिकताओं में भी सुधार की दरकार है। इनमें से ज्यादातर में सरकारी खर्च कम कर दिए गए हैं, और नियम-कानूनों से भी बहुत थोड़े संस्थागत सुधार किए गए हैं। इनमें से अधिकांश के लिए जहां बहुत अधिक वित्तीय सहायता की जरूरत नहीं है, बल्कि कानूनी दखल की दरकार है, वहीं कुछ के लिए राज्यों को निवेश बढ़ाना होगा और खर्च करना होगा। देखा जाए, तो अभी इस क्षेत्र में जरूरी सुधारों को आगे बढ़ाने का बिल्कुल सही समय है। किसान प्रतिनिधित्व वाला पैनल एक अच्छी शुरुआत हो सकती है।