बिफोर कोविड, आफ्टर डिजास्टर की पहचान की ओर दुनिया, कोविड डिग्लोबलाइजेशन युग की शुरुआत है!

देश ‘तीसरी लहर’ के बारे में सोच रहा है और वैक्सीन निर्माता ‘बूस्टर शॉट्स’ की आवश्यकता के बारे में बात कर रहे हैं

Update: 2021-09-21 09:31 GMT

शशि थरूर।  देश 'तीसरी लहर' के बारे में सोच रहा है और वैक्सीन निर्माता 'बूस्टर शॉट्स' की आवश्यकता के बारे में बात कर रहे हैं, ऐसे में क्या हम वास्तव में कोविड के बाद की दुनिया पर विचार कर सकते हैं? अभी निश्चित रूप से कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी, फिर भी कोविड -19 डिग्लोबलाइजेशन के युग की शुरुआत कर सकता है। इस बात के संकेत बढ़ रहे हैं कि पूरी दुनिया पहले की तुलना में कहीं अधिक तेजी से अलगाववाद और संरक्षणवाद को अपनाएगी।

1980 में मुक्त व्यापार से वैश्वीकरण शुरू होने के बाद से विश्व अर्थव्यवस्था फली-फूली थी। यह व्यवस्था 2008-09 के फाइनेंशियल क्रैश और चीन के साथ अमेरिकी व्यापार युद्ध से पहले ही लड़खड़ा चुकी थी। कोरोना के साथ हर जगह निर्यात गिर रहा है और व्यापार सिकुड़ रहा है।
चीन को कोविड के बड़े विजेता के रूप में देखा जा रहा था, लेकिन एक उलट प्रतिक्रिया शुरू हो गई है। उदाहरण के लिए जापान ने चीन से बाहर निकलने वाली जापानी कंपनियों के लिए प्रोत्साहन में 2.25 बिलियन डॉलर अलग रखे हैं। सस्ते चीनी श्रम और रियायती इनपुट के बिना सस्ते सामानों का युग समाप्त हो सकता है।
कोविड ने यह धारणा बनाई है कि विदेशियों से डरना चाहिए, सख्त सीमा और आव्रजन नियंत्रण आवश्यक हैं, देश हमेशा पड़ोसियों व सहयोगियों से मदद की उम्मीद नहीं कर सकते, राष्ट्रीय हितों को अंतरराष्ट्रीय सहयोग पर हावी होना चाहिए। इसके बजाय संप्रभुता, राष्ट्रवाद और आत्म-सुरक्षा पर जोर दिया जाने लगा है। यूएन के पास अपना महत्व बनाए रखने के लिए चिंता करने के कई कारण हैं। हममें से जो लोग सोचने लगे थे विश्व को 'एक विश्व' के रूप में देखने लगे थे, उन्हें अपनी सोच बदलनी होगी।
महामारी वैश्विक व्यवस्था के लिए एक 'मेगा-शॉक' है, जिसमें मौजूदा विश्व व्यवस्था को भंग करने की संभावना है। दुनिया भर में जिस तरह संधियों और व्यापार समझौतों पर तेजी से सवाल उठाए जा रहे हैं, ऐसे में बहुपक्षवाद अगली आपदा हो सकती है। ट्रम्प की डब्ल्यूएचओ से अमेरिका की वापसी की घोषणा बहुपक्षवाद का ही एक अशुभ खतरा थी। हालांकि उनके उत्तराधिकारी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने उस फैसले को उलट दिया। लेकिन इससे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद परिश्रम से बनाई गई अंतरराष्ट्रीय प्रणाली के लिए एक चेतावनी की घंटी बज चुकी है।
वायरस के प्रति यह प्रतिक्रिया विश्व की सामूहिक मानवता के विचार को नष्ट कर सकती है। इसी तरह का ट्रेंड घरेलू राजनीति में भी है। महामारी का इस्तेमाल कई सरकारें संसदों, अदालतों, वित्तीय संस्थानों, पुलिस और मीडिया पर अपना नियंत्रण बढ़ाने के लिए कर रही हैं। देशों के भीतर ज़ेनोफ़ोबिया बढ़ रहा है। ऐसा लगता है कि इस महामारी के दौर ने 'दूसरों' से डर को बढ़ा दिया है।
राष्ट्रीय, धार्मिक, जातीय या क्षेत्रीय पहचान अहम हो गई है। भारत में पूर्वोत्तर राज्यों के नागरिकों को शुरू में उनकी 'चीनी' विशेषताओं के कारण नस्लीय भेदभाव का सामना करना पड़ा। लॉकडाउन के आरंभ में तब्लीगी जमात के आयोजन का इस्तेमाल खुली कट्टरता और मुसलमानों के खिलाफ भेदभाव को सही ठहराने के लिए किया गया था।
यूरोप, जिसे कभी क्षेत्रीय एकीकरण के गुणों के लिए 'पोस्टर चाइल्ड' के रूप में देखा जाता था, अब वही इसकी सीमाओं का प्रतीक बन गया है। क्योंकि 'आइडिया ऑफ यूरोप' महामारी के हमले से जल्द टूट गया। यूरोपीय एकजुटता शुरुआती शिकार रही है।
प्रसिद्ध शेंगेन वीजा और सीमा-मुक्त आवाजाही की धारणा महामारी की पहली शिकार बनी। डिग्लोबलाइजशेन का दौर अमेरिका और महाशक्ति के तमगे के लिए उसके प्रतिद्वंद्वी चीन के बीच नए दोध्रुवीय तनाव का हो सकता है। अब अमेरिका किसी भी क्षेत्र में निर्विरोध नहीं रहेगा।
चिंता की बात यह है कि चीन को शांतिपूर्ण रहने की कोई आवश्यकता नहीं दिखती: विवादित सीमा पर भारत के साथ उसकी तकरार, जापान और वियतनाम जैसे अपने समुद्री पड़ोसियों के साथ इसकी मुखरता, हांगकांग में इसकी सख्त नई सुरक्षा और ऑस्ट्रेलिया पर व्यापार प्रतिबंध सभी अपने लक्ष्यों को आक्रामक रूप से आगे बढ़ाने की बात करते हैं।
महामारी ने पुरानी विश्व व्यवस्था की नींव को हिला दिया है। कोविड के बाद की दुनिया पर इस आपदा की छाप कहीं अधिक दूरगामी हो सकती है। हमें अपने समय को 'बीसी' (कोविड से पहले) और 'एडी' (आफ्टर डिजास्टर) के रूप में देखने की आवश्यकता है।


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