बापू की जयंती: गांधी को इस तरह भी देखें
क्या बापू स्वयं को राष्ट्रपिता कहलाना पसंद करते?- शायद कभी नहीं, क्योंकि वह जानते थे कि शाश्वत सनातन संस्कृति और कालातीत परंपरा में इन प्रतीकात्मक संबोधनों का क्या अर्थ है।
देश गांधी जी की 152वीं जयंती मना रहा है। पर जिस बापू ने जीवनभर अन्याय के विरुद्ध संघर्ष किया, उन्हें मृत्योपरांत आज तक अपने प्रशंसकों (स्वयंभू गांधीवादी सहित) और आलोचकों से न्याय नहीं मिला। बहुत से प्रशंसक गांधी को ईश्वरतुल्य मानते हैं, उन्हें 'राष्ट्रपिता' कहते हैं। जब भारत की मूल सनातन संस्कृति में भगवान के अवतार विवेचना से मुक्त नहीं हैं, तो गांधी जी अपवाद कैसे हो सकते हैं।
कई आलोचक बापू को उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे के चश्मे से देखते हैं और उनको देश के विभाजन व उसकी रक्तरंजित विभीषका के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। सच यह है कि देश को इस त्रासदी से बचाने हेतु गांधी जी ने भरसक प्रयास किए। उनकी नीयत और दृष्टि निष्कलंक थी। वह सोचते थे कि तुष्टिकरण से विभाजन की पक्षधर मजहबी मानसिकता परास्त हो जाएगी, इसलिए उन्होंने जिन्ना को अविभाजित भारत का प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव तक भी रख दिया था। किंतु अपेक्षा के विरुद्ध यह नीति त्रुटिपूर्ण साबित हुई।
गांधी जी आस्थावान सनातनी हिंदू थे और उन्हें तत्कालीन हिंदू समाज अपना नेता और संत मानता था। यदि उन्होंने 16वें अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की भांति इच्छाशक्ति दिखाई होती, तब शायद भारत अविभाजित रहता। अमेरिका में लिंकन ने दासप्रथा को अस्वीकार करते हुए गृहयुद्ध को चुना था। यदि भारत में 'काफिर-कुफ्र' दर्शन से समझौता करने के बजाय संघर्ष किया गया होता, तो शायद देश खंडित नहीं होता। वैसे भी रक्तपात-मुक्त तो देश का विभाजन भी नहीं रहा था।
पाकिस्तान का निर्माण सर सैयद द्वारा प्रतिपादित 'दो राष्ट्र सिद्धांत' पर हुआ था। किंतु इस्लाम के नाम पर मुसलमानों को राजनीतिक रूप से एकजुट करने का काम खिलाफत आंदोलन (1919-24) ने किया, जिसका भारत से कोई लेना-देना नहीं था। बापू ने यह सोचकर इस मजहबी अभियान का नेतृत्व किया कि इसके माध्यम से मुस्लिम समाज स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ेगा, तो स्वराज्य की मांग को शक्ति मिलेगी। परंतु उनकी इस नीति ने भारत पर पुन: इस्लामी परचम लहराने हेतु जिहाद को स्वीकार्यता दे दी, जिसने विभाजन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इसका वीभत्स रूप 1921 के मोपला दंगे में दिखा था, जब अनगिनत हिंदू महिलाओं से बलात्कार के साथ 10 हजार से अधिक हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया गया था।
गांधी जी ने संघर्ष के बजाय विभाजन को स्वीकार क्यों किया? क्या उस समय का हिंदू देश की एकता-अखंडता के लिए लड़ने-मरने को तैयार था? देश भर में खिलाफत जनित सांप्रदायिक दंगों में अधिकांश स्थानों पर जब हिंदुओं ने मार खाई और जानमाल-सम्मान का नुकसान झेला, तब 29 मई 1924 को यंग इंडिया में गांधीजी ने दंगों की विवेचना करते हुए लिखा, '...मुसलमान अपने घिनौने आचरण का बचाव नहीं कर सकते... किंतु एक हिंदू होने के नाते मैं हिंदुओं की कायरता पर अधिक शर्मिंदा हूं... लूटे घरों के मालिक अपनी संपत्ति की रक्षा के प्रयास में क्यों नहीं मरे? जब बहनों का बलात्कार हो रहा था, तब उनके परिजन कहां थे? मेरी अहिंसा खतरे के समय अपनों को असुरक्षित छोड़ भागने को स्वीकार नहीं करती। हिंसा और कायरता के बीच, मैं हिंसा को कायरता के स्थान पर प्राथमिकता दूंगा।'
अप्रैल, 1946 में गांधी जी ने एक और बड़ा निर्णय लिया। उन्होंने सरदार पटेल के पक्ष में आए बहुमत आधारित प्रचंड फैसले को अपने प्रभाव से पलटकर पं. नेहरू को अंतरिम प्रधानमंत्री बना दिया। गांधी जी ने ऐसा क्यों किया? संभवत: देश के दूरगामी हितों को ध्यान में रखकर बापू ने यह निर्णय लिया था, क्योंकि वह नेहरू की महत्वाकांक्षा और पटेल के अनुशासित-सहयोगात्मक स्वभाव से परिचित थे। यह नहीं भूलना चाहिए कि गांधी जी के आग्रह पर ही पं. नेहरू ने दो गैर-कांग्रेसी डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी और डॉ. आंबेडकर को अंतरिम सरकार में शामिल किया था।
दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के पश्चात गांधी जी तीन दशकों तक भारतीय राजनीति के मुख्य कर्णधार रहे। इस दौरान उन्होंने अपने बहुआयामी व्यक्तित्व से कई प्रयोग करके न केवल स्वाधीनता की लौ जलाए रखी, बल्कि ब्रितानी कुटिलता को कई अवसरों पर निष्प्रभावी भी किया। 1932 का पूना समझौता- इसका प्रमाण है। तब दलित, शेष हिंदू समाज से अलग न हो- इसके लिए गांधी जी ने आमरण अनशन किया था। दलितों के लिए वर्तमान आरक्षण- इसका परिणाम है।
बापू ने गौसंरक्षण पर बल दिया, तो मतांतरण का विरोध और समाज को स्वावलंबी बनाने हेतु खादी और कुटीर-उद्योग के लिए प्रोत्साहित किया। उनका जीवन पूर्णत: जनसेवा हेतु समर्पित था। उन्होंने न कभी अपने या अपने परिवार के बारे में कुछ सोचा। उनके बड़े बेटे हरिलाल ने 1948 में लावारिसों की भांति मुंबई में दम तोड़ा था। जब दिल्ली में नेहरू सहित शीर्ष नेता आजादी का उत्सव मना रहे थे, तब बापू नोआखाली में जिहादियों से सैकड़ों हिंदुओं को बचाने में जुटे थे।
कुछ समय से गांधी जी के स्वघोषित भक्तों में वामपंथी आगे हो गए हैं, जिनका अंतिम वैचारिक उद्देश्य छिपा नहीं है। भारत छोड़ो आंदोलन में अन्य देशभक्तों की भांति गांधी जी के लिए भी वामपंथियों ने ओछे शब्दों का उपयोग किया था। मार्क्सवादियों के तथाकथित गांधी-प्रेम का कुटिल लक्ष्य सिर्फ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कठघरे में खड़ा करना है, जो उनके भारत-हिंदू विरोधी एजेंडे में सबसे बड़ा बाधक है।
निस्संदेह, गांधी जी भारत के महासपूतों में से एक थे, जिनकी राजनीति का संबल अध्यात्म था। राष्ट्रहित से ही प्रेरित होकर उन्होंने कई निर्णय लिए थे और अंतिम सांस तक सक्रिय रहे। क्या बापू स्वयं को राष्ट्रपिता कहलाना पसंद करते?- शायद कभी नहीं, क्योंकि वह जानते थे कि शाश्वत सनातन संस्कृति और कालातीत परंपरा में इन प्रतीकात्मक संबोधनों का क्या अर्थ है।