बंकिमचंद्र ने क्षुब्ध होकर लिखा था वंदे मातरम

1894 को बंकिम के संसार को अलविदा कहने के 129 साल बाद भी यह अतुलनीय बना हुआ है.

Update: 2023-06-26 13:03 GMT

वंदे मातरम. वंदे मातरम. सुजलाम सुफलाम, मलयजशीतलाम, शस्य श्यामलाम. मातरम...बंगाल के लब्धप्रतिष्ठित कथाकार, कवि, निबंधकार और पत्रकार बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1874 में रचे अपने इस गीत में भारत माता की जो छवि वर्णित की है, वह निस्संदेह निराली है. इसका गौरव सिर्फ यह नहीं है कि उसे संवैधानिक रूप से राष्ट्र गान होने का गौरव प्राप्त है, बल्कि इस बात में भी है कि आजादी की लड़ाई के दौरान बहुत सारे क्रांतिकारियों ने इसका उद्घोष करते हुए अपना जीवन दांव पर लगाया या स्वतंत्रता की वेदी पर प्राण न्योछावर कर दिये. यह अकारण नहीं है कि आठ अप्रैल, 1894 को बंकिम के संसार को अलविदा कहने के 129 साल बाद भी यह अतुलनीय बना हुआ है.

बंकिम का जन्म 26 जून, 1838 को पश्चिम बंगाल के उत्तर चौबीस परगना जिले के कांठलपाड़ा गांव में एक समृद्ध बंगाली परिवार में हुआ. वह माता दुर्गा देवी व पिता यादव चंद्र की सबसे छोटी संतान थे. कहते हैं कि उनकी साहित्यिक संभावनाओं के अंकुर उनकी युवावस्था में ही विकसित होने लगे थे. महज 27 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपना पहला उपन्यास ‘दुर्गेशनंदिनी’ लिख डाला था. हालांकि, इसका प्रकाशन कुछ देर से 1965 में संभव हुआ और इस कारण उनकी प्रथम प्रकाशित रचना का स्थान ‘राजमोहंस वाइफ’ को मिल गया, जो अंग्रेजी में है. अलबत्ता, दुर्गेशनंदिनी के प्रकाशन के बाद बंकिम ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और बांग्ला साहित्य में अपनी धाक जमा ली. उन्हें बांग्ला साहित्य को जनमानस तक पहुंचाने वाला पहला साहित्यकार माना जाने लगा.
उनकी शुरुआती स्कूली शिक्षा मेदिनीपुर में हुई, जिसके बाद उन्होंने हुगली के मोहसिन कॉलेज में प्रवेश लिया. तब तक वह अपने गुरुजनों में संस्कृत में रुचि रखने वाले एक होनहार छात्र की छवि बना चुके थे. उनकी आगे की शिक्षा बांग्ला के साथ-साथ अंग्रेजी व संस्कृत में हुई. वर्ष 1857 में वह कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज से बी.ए. की उपाधि पाने वाले पहले भारतीय बने. फिर 1869 में उन्होंने कानून की डिग्री प्राप्त की, जिसके बाद उन्हें डिप्टी मजिस्ट्रेट पद पर नियुक्ति मिली. उन्होंने कुछ साल तत्कालीन बंगाल सरकार में सचिव के पद पर भी काम किया और रायबहादुर व सीआइइ जैसी उपाधियां भी अर्जित कीं.
वर्ष 1891 में सेवानिवृत्ति के बाद वे साहित्य व स्वतंत्रता संघर्ष के पूर्णकालिक सिपाही बन गये. उनकी प्रमुख रचनाएं हैं- कपालकुंडला (1866), मृणालिनी (1869), विषवृक्ष (1873), चंद्रशेखर (1877), रजनी(1877), राज सिंह (1881) और 1884 में प्रकाशित देवी चौधुरानी. लेकिन उनके राजनीतिक उपन्यास ‘आनंदमठ’ का स्थान सबसे ऊपर है. राष्ट्रीय गान ‘वंदे मातरम’ इसी उपन्यास का हिस्सा है. उत्तर बंगाल में हुए ऐतिहासिक संन्यासी विद्रोह पर आधारित इस उपन्यास का प्रकाशन 1882 में हुआ था. जानकार बताते हैं कि 1874 में उन्होंने इस गीत की रचना अंग्रेजों द्वारा देश में सारे कार्यक्रमों में महारानी विक्टोरिया के सम्मान में ‘गॉड! सेव द क्वीन’ का गायन अनिवार्य कर देने से क्षुब्ध होकर की थी.
‘वंदे मातरम’ को पहली बार 1896 में कोलकाता में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में गाया गया था. उसके बाद जल्दी ही यह भारतीय क्रांतिकारियों का पसंदीदा गीत और मुख्य उद्घोष बन गया. कहा जाता है कि इसकी धुन रवींद्रनाथ टैगोर ने बनायी थी. स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई तो संविधान परिषद ने 24 जनवरी, 1950 को रवीन्द्रनाथ टैगोर के ‘जन-गण-मन-अधिनायक’ को ‘राष्ट्रगान’ घोषित करते हुए ‘वंदे मातरम’ को राष्ट्रीय गान का गौरव प्रदान किया. बंकिम ने ‘सीताराम’ नामक अपना अंतिम उपन्यास 1886 में लिखा और उसमें मुस्लिम सत्ता के प्रति एक हिंदू शासक का विरोध दर्शाया.
बंकिमचंद्र कवि भी थे और साहित्य के क्षेत्र में उनका प्रवेश भी कविताओं के रास्ते ही हुआ था. उनकी कविताओं के प्रकाशित संग्रह हैं- किछु कविता और ललिता ओ मानस. इनके अलावा धर्म, सामाजिक और समसामयिक मुद्दों पर आधारित कई निबंध भी उनके खाते में हैं. प्रशंसकों के अनुसार आजीविका के लिए उन्होंने तत्कालीन गोरी सरकार की नौकरी जरूर की, लेकिन अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान व स्वभाषा प्रेम से कभी समझौता नहीं किया. एक बार वह अपने एक मित्र के अंग्रेजी में पत्र भेजने पर ऐसे नाराज हुए कि उसे बिना पढ़े यह लिखकर लौटा दिया कि अंग्रेजी न तुम्हारी मातृभाषा है, न ही मेरी.
उन्होंने अपने उपन्यासों में तो गोरे सत्ताधीशों पर तीखे व्यंग्य बाण चलाये ही, 1872 में ‘बंग दर्शन नामक मासिक पत्रिका प्रकाशित की तो भी अपना वही रवैया बरकरार रखा. रवींद्रनाथ टैगोर इस ‘बंग दर्शन’ में लिखते-लिखते ही साहित्य के क्षेत्र में आए. वे बंकिमचंद्र को अपना गुरु मानते थे और उनका कहना था कि ‘बंकिम बांग्ला लेखकों के गुरु और बांग्ला पाठकों के मित्र हैं.’ साहित्य के क्षेत्र में अनमोल विरासत छोड़ बंकिम ने आठ अप्रैल 1894 को कोलकाता में दुनिया को अलविदा कहा.

CREDIT NEWS: prabhatkhabar

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