मुक्केबाजी के 'गोल्ड' का फनाह होना

बैंकॉक एशियाई खेलों के स्वर्ण पदक विजेता और भारत के पूर्व बैटमवेट मुक्केबाज डिंको सिंह का केवल 41 वर्ष की उम्र में निधन हो जाने से खेल जगत शोक में है।

Update: 2021-06-12 01:23 GMT

आदित्य चोपड़ा| बैंकॉक एशियाई खेलों के स्वर्ण पदक विजेता और भारत के पूर्व बैटमवेट मुक्केबाज डिंको सिंह का केवल 41 वर्ष की उम्र में निधन हो जाने से खेल जगत शोक में है। हालांकि कोरोना काल में हमने बहुत हस्तियों और करीबी लोगों को खोया है। डिंको सिंह को पिछले वर्ष कोरोना वायरस ने अपनी चपेट में ले ​लिया था। यद्यपि डिंको सिंह ने कोविड-19 से जंग जीत ली थी लेकिन 2017 से ही उनका लिवर कैंसर का उपचार चल रहा था। अक्सर राजनीतिज्ञों के बारे में मीडिया में बहुत कुछ लिखा जाता है। उनकी उपलब्धियों का महिमामंडल किया जाता है। उनके ​निधन पर उन्हें श्रद्धांजलियां देने वालों का तांता लगा रहता है। लेकिन अनेक ऐसे प्रतिभा सम्पन्न लोग भी हुए जिनके जीवन के बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी है। हालांकि लोग उनकी उपलब्धि से परिचित हैं। डिंको सिंह का जन्म 1979 में इंफाल के सेकता गांव में बेेहद गरीब परिवार में हुआ था। बचपन में ही माता-पिता का निधन हो गया तो उन्हें अनाथालय में रहना पड़ा। उन्हें अपनी जीवन की शुरूआत से ही अनेक विषमताओं का सामना करना पड़ा। भारतीय खेल प्राधिकरण द्वारा शुरू की गई ​विशेष क्षेत्र खेल योजना के प्रशिक्षकों ने डिंको सिंह की छिपी प्रतिभा को पहचाना। मेजर ओ. पी भाटिया ने डिंको सिंह से पूछा था कि तुम क्या बनना चाहते हो और तुम क्या जानते हो तो डिंको सिंह ने कहा था मैं मुक्केबाज बनना चाहता हूं। मेजर ओ.पी. भाटिया की विशेष निगरानी में ही उन्हें प्रशिक्षित किया गया। अक्सर अनाथ बच्चों पर समाज ध्यान नहीं देता और उन्हें हाशिये पर धकेल दिया जाता है लेकिन एक अनाथ बच्चे का भारत का सबसे बेहतरीन मुक्केबाज बनना अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि है।

डिंको सिह की प्रतिभा, प्रयास और प्रशिक्षण ने रंग दिखाना शुरू किया और महज दस वर्ष की आयु में उन्होंने 1989 में अम्बाला में आयोजित जूनियर राष्ट्रीय मुक्केबाजी चैम्पियनशिप में जीत हासिल की। इस उपल​ब्धि के कारण चयनकर्ताओं और प्रशिक्षकों का ध्यान उन पर गया, जिन्होंने उसे भारत के एक होनहार मुक्केबाजी स्टार के रूप में देखना शुरू कर दिया । किशोरावस्था में एक के बाद एक मिली जीत से डिंको सिंह के भीतर मुक्केबाजी को लेकर जुनून पैदा हो गया। वर्ष 1997 में उसने अन्तर्राष्ट्रीय मुक्केबाजी के क्षेत्र में पहला कदम रखा। 1998 के बैंकाक एशियाई खेलों में भाग लेने भारतीय मुक्केबाजी टीम के लिए उन्हें चुना गया, हालांकि किसी ने भी उनसे देश के लिए कोई बड़ा कारनामा करने की उम्मीद नहीं की थी। वास्तविकता यह थी कि बैंकाक की अपनी उड़ान के दो घंटे पहले डिंको ​को अपने चयन के संबंध में कुछ भी ज्ञान नहीं था। बैंकाक एशियाई खेलों में मुक्केबाजी स्पर्धा के वह क्षण कभी भुलाए नहीं जा सकते जब फाइनल में डिंको का सामना उज्बेकिस्तान के प्रसिद्ध मुक्केबाज तैमूर तुल्याकोन से हुआ। उस समय तैमूर दु​निया के पांचवें नम्बर के मुक्केबाज थे। मैच के दौरान डिंको सिंह अपने प्रतिद्वंद्वी से कहीं बेहतर साबित हुए और तैमूर को चौथे राउंड के बाद ही मुकाबला छोड़ना पड़ा। उन्होंने स्वर्ण पदक जीतकर भारत के 16 साल के इंतजार को खत्म किया था।
मुक्केबाजी के खेल में उनकी उत्कृष्टता और अपने लगातार प्रयासों और समर्थन द्वारा देश के लिए किए गए उनके असाधारण योगदान को सम्मानित करने के लिए उन्हें वर्ष 1998 में प्रतिष्ठित अर्जुन पुरस्कार प्रदान किया गया। उन्हें वर्ष 2013 में पद्मश्री अवार्ड से सम्मानित किया गया था। डिंको सिंह का जीवन और संघर्ष हमेशा भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्रोत रहेगा। डिंको सिंह ने कोचिंग में भी अपना योगदान दिया। वह तो मुक्केबाजी एम.सी. मैरीकॉम और अनुभवी सरिता देवी के प्रेरणा स्रोत रहे हैं।
वह कई स्टार बाक्सर के लिए रोल मॉडल रहे। उनका मुकाबला देखने के ​लिए मैरीकॉम भी कतार में खड़ी रहती थी। दरअसल उनके गोल्ड मेडल जीतने के बाद भारतीय मुक्केबाजी में बहुत परिवर्तन आया। अनेक युवा मुक्केबाजी के लिए प्रेरित हुए। डिंको सिंह एक दिग्गज थे, एक रॉकस्टार थे, एक योद्धा थे। उन्होंने ख्याति अर्जित की तथा मुक्केबाजी को लोकप्रिय बनाने में अहम योगदान दिया। कैंसर का पता चलने के बाद डिंको को इलाज के लिए पैसे जुटाने पड़े, अपना घर तक बेचना पड़ा और नौकरी तक छोड़नी पड़ी। उनके संघर्षमय जीवन को हमेशा याद रखा जाएगा। पंजाब केसरी उन्हें अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।



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