आचरण के पहलू

पिछले दिनों बस यात्रा करते हुए एक कस्बे से गुजरे, तो एक दीवार पर बहुत सुंदर संदेश लिखे दिखे। बस की खिड़की से जितना भी पढ़ने में आया, उसे पढ़ने-गुनने की कोशिश की।

Update: 2022-06-01 05:24 GMT

पूनम पांडे: पिछले दिनों बस यात्रा करते हुए एक कस्बे से गुजरे, तो एक दीवार पर बहुत सुंदर संदेश लिखे दिखे। बस की खिड़की से जितना भी पढ़ने में आया, उसे पढ़ने-गुनने की कोशिश की। उनमें एक वाक्य था कि अपना जीवन ईमानदारी से जिएं, इस बात को ध्यान में रख कर कि आप दुनिया को प्रभावित करने की नौकरी पर नहीं लगे हैं। पढ़ कर मन गदगद हो गया। दरअसल, मनुष्य किसी प्रभाव आदि के मोह में ही सबसे पहले गिरता है। वह अपने आसपास अपने किसी गुण के विज्ञापन से रंगी दीवारें ऊपर उठाता हुआ कोई मांगने वाला-सा लगता है, जबकि लालच, लोभ से परे खामोशी से कर्म करता हुआ आदमी हमेशा सुरक्षित होता है। बस इसी को सूझ के साथ जीना कहते हैं।

सच है, जिंदगी में कभी-कभी जरा-सी सूझ और सुलझे विचारों के जरिए हम बड़ी से बड़ी मुश्किल से बच सकते हैं, इसलिए हर बात पर कुछ टिप्पणी देने की जल्दी न कर अगर माहौल की वजह पर गौर करेंगे, तो जरूर शांत रह सकेंगे। वैसे चुनौती कोई इतनी भी जानलेवा नहीं होती। डर जाने वाला कायर बन जाता है और अपनी आजादी अपने हाथों चकनाचूर कर देता है। इस संसार में सबसे भयानक और घुटन भरा जीवन एक गुलाम का होता है, पर एक मर्यादित व्यक्ति को देखें तो वह परम आनंद मेंं ही रमा होगा। सवाल यह नहीं है कि दोनों के पास कितने नियम, कायदे बंधन आदि हैं।

सवाल यह है कि पहला यानी गुलाम तो अपने सोचने-समझने की ताकत सहित पूरे अस्तित्व को ही कहीं भेंट कर चुका है और गर्दन झुका कर, बस अगले आदेश का ही अनुगामी है। जबकि दूसरे ने अपनी सीमा अपने विवेक से बनाई है। वैसे ही जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने बनाई। उनकी प्राथमिकता थी संसार में सद्मार्ग की स्थापना। राम इतने विवेकी थे कि हर पल नैतिक, अनैतिक आचरण का भान उन्हें रहता था। इसीलिए आज हजारों साल बाद भी उनकी मर्यादा एक पर्याय बन गई है। आज अपने चारों तरफ देखें तो पूरी पीढ़ी ग्लैमर, सफलता, चमक-दमक के लिए अपने हर संस्कार का अवमूल्यन करके छोटे रास्ते के पीछे चूहा दौड़ कर रही है।

ऐसा तब होता है जब हम जीवन में ओछे मुद्दों पर केंद्रित होने लगते हैं और वही हमारे आचरण पर हावी हो जाते हैं। एक ऐसा व्यक्ति, जिसे समाज सुधारना है, वह अपने सादा परिधान और जूते-चप्पल को इतनी गंभीरता से नहीं लेगा, जितना कि किसी तबके की समस्या सुलझाने में। यहीं से उसका संस्कार बनता चला जाता है। जितनी ऊंची और व्यापक सोच होगी, व्यक्ति सहज ही मर्यादित होगा।

यह मर्यादा अगर खुद पर परखनी है, तो मूल्यांकन बहुत आसान है। कुछ देर अपने पर गौर कीजिए कि आप देखना, सुनना, हंसना, स्वाद लेना, बात करना, चलना आदि कैसे करते आए हैं। इस प्रयोग से आप तुरंत ही समझ जाएंगे कि आपका सूक्ष्म आचरण तक मर्यादित है या नहीं। अब स्थूल आचरण भी महसूस कीजिए। किसी से वार्तालाप में आपकी प्रतिक्रिया कैसी है, आप अक्सर कैसी विचारधारा में रहते हैं, कितने लोगों से आपको हर दिन बदला लेकर ही रहना है। आप कितनी सुविधाएं और आराम दूसरों जैसा चाहते हैं। बहुत जल्द आभास होने लगेगा कि मर्यादा से कोसों दूर हैं या उसके आसपास हैं। हम जैसा देखते हैं वैसा सोचते हैं और जो सोचते हैं वही बन जाते हैं।

एक बार एक जिज्ञासु ने सुकरात से पूछा कि सामाजिक जीवन में निखार कैसे ला सकते हैं। सुकरात ने कहा कि इसके लिए चार सवाल अपने आप से पूछते रहना चाहिए, पहला कि आप जब किसी से मिलते हैं, तब आपका व्यवहार कितना स्वाभाविक या कृत्रिम होता है। दूसरा यह कि आप अमूमन किस तरह का वार्तालाप करते हैं। तीसरा यह कि आप अपने समाज के प्रति कितनी बार शुक्रगुजार होते हैं और अंतिम सवाल यह कि आप कितनी बार बगैर किसी टालमटोल के, अपना समय और धन यथासंभव समाज को देते हैं। इन चार सवालों के ईमानदार जवाब तय कर देंगे कि आप कितना हिलमिल कर रहते हैं और कितने सामाजिक हैं।

कुल मिलाकर हमारा नजरिया, हमारा व्यवहार ही हमें सहज मर्यादा सिखा देता है। उच्छृंखलता कभी हमारी मित्र नहीं हो सकती। यह एकदम सतही हुआ करती है। जो कुछ सार्थक है, वह मर्यादा में ही है। मर्यादा किसी घिसी-पिटी सीमा रेखा में बंधना बिलकुल भी नहीं है। मर्यादा में रहने का अर्थ है सत्य के साथ रहना, जैसे पेड़ों की पत्तियां मर्यादा में रहती हैं। वे शाखा के साथ रहती हैं और जीवन का अनुभव करके उसकी ताजगी से सराबोर भी।

अगर कुदरत के कण-कण और तृण-तृण में मर्यादा का परचम लहरा रहा है, तो मर्यादा के सिवा परम सुख का स्रोत और क्या हो सकता है। हर पल हम सब मर्यादा में रह कर इस जीवन को और अधिक बेहतर जी सकते हैं।


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