पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के नतीजे आते ही महागठबंधन के दावों की हवा निकल गई
ओपिनियन
राकेश दीक्षित |
भारत के कुछ क्षेत्रीय राजनीतिक दल जो इस साल मार्च में पांच विधानसभा चुनावों (Assembly Elections) से पहले 2024 के लोकसभा चुनावों (Lok Sabha Election) के मद्देनजर बीजेपी (BJP) से मुकाबला करने के लिए विपक्षी दलों की एकजुटता के बारे में काफी गंभीर लग रहे थे अब इससे बाहर हो गए हैं. पंजाब को छोड़कर बाकी जगहों के चुनावों में बीजेपी की शानदार जीत ने विपक्षी दलों के एकजुट होने के उनकी कोशिशों पर मानो ठंडा पानी डाला दिया हो. वे इस भव्य योजना के वास्तविकता बनने के बारे में अब आशावादी नहीं दिखते. चुनाव के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी विपक्षी एकता की कल्पना की निरर्थकता का एहसास है.
हालांकि, आम आदमी पार्टी के लीडर के प्रति निष्पक्ष होने के लिए इस बात पर जोर देने की जरूरत है कि उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी के सत्ता में लौटने के तुरंत बाद ही विपक्षी दलों के चुनाव पूर्व गठबंधन की उम्मीद छोड़ दी थी. तब से अरविंद केजरीवाल ने जानबूझकर खुद को विपक्षी गठबंधन बनाने की बातचीत से खुद को बाहर रखा है. 29 अप्रैल को नई दिल्ली में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ केजरीवाल की मुलाकात से अटकलें लगाई जाने लगी थीं कि इस बैठक में उन्होंने 2024 के लोकसभा चुनावों और आगामी राष्ट्रपति चुनाव के लिए विपक्षी एकता के बारे में बात की थी.
चुनाव परिणाम ने महागठबंधन के गुब्बारों की हवा निकाल दी
हालांकि बाद में यह पता चला कि बैठक का उद्देश्य वास्तव में AAP और TMC के बीच आपसी संबंधों को सुधारना था जो गोवा विधानसभा चुनाव के दौरान खराब हो गए थे. दोनों पक्षों ने साफ किया कि यह बस एक शिष्टाचार भेंट थी जिसमें ममता बनर्जी ने केजरीवाल को पंजाब में उनकी पार्टी की जबरदस्त जीत पर बधाई दी. रविवार को दिल्ली के मुख्यमंत्री की टिप्पणी ने विपक्षी गठबंधन की निरर्थकता के बारे में उनका स्टैंड और साफ कर दिया जिसमें उन्होंने कहा न तो उन्हें और न ही ममता को इस तरह की संभावना का कोई भ्रम था जब वे मिले थे. दोनों ही लीडर कमजोर होती कांग्रेस के दम पर राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरने की महत्वाकांक्षा रखते हैं. लेकिन वे कांग्रेस के और कमजोर होने का इंतजार करना पसंद करेंगे ताकि उनकी संबंधित पार्टी को बीजेपी के विकल्प के रूप में देखा जा सके.
डीएमके जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश क्षेत्रीय दल कांग्रेस को उतना ही नापसंद करते हैं जितना वे बीजेपी से डरते हैं. वे तब तक बेवजह बीजेपी से भिड़ना नहीं चाहेंगे जब तक कि ऐसा करने की उनके पास कोई बड़ी वजह न हो. वे इस बात से पूरी तरह वाकिफ हैं कि मोदी सरकार के पास विपक्षी शासित राज्यों में सत्ताधारी दलों को नुकसान पहुंचाने की इच्छाशक्ति और क्षमता दोनों है. केंद्र के पास राज्यों में जाने वाले कई सरकारी फंड को रोकने की पावर हैं. सीबीआई, ईडी और आयकर जैसी केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग विपक्षी नेताओं पर शिकंजा कसने के लिए कैसे किया जा सकता है ये बताने की जरूरत नहीं है.
क्षेत्रीय दलों द्वारा ऐसे जोखिम तब तक टाले जा सकते हैं जब तक कि वे चुनावों में सीधे तौर पर बीजेपी के खिलाफ खड़े न हों. 2024 में लोकसभा चुनाव से पहले छह राज्यों में मतदान होने जा रहा है और इन सभी में कांग्रेस बीजेपी की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी है. चुनावी राज्यों गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस बीजेपी की पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी है. आने वाले विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय दल उत्सुकता के साथ से खड़े हो सकते हैं. कांग्रेस के प्रति उनकी उदासीनता को देखते हुए गैर-बीजेपी विपक्षी दल बहुत दुखी नहीं होंगे यदि ग्रैंड ओल्ड पार्टी इन चुनावों में लगातार हारने का अपना रिकॉर्ड बनाए रखती है.
यही सबसे मुख्य वजह लग रही है कि जिसके चलते विपक्षी एकता की बातें भाप बनकर उड़ गई हैं. जब पांचों राज्य विधानसभा चुनाव की तैयारी कर रहे थे तब महागठबंधन की उम्मीदों के गुब्बारे हवा में ऊंचे उड़ रहे थे. लेकिन चुनाव परिणाम ने गुब्बारों की हवा निकाल दी. 11 मार्च के बाद विपक्षी एकता के बारे में लंबे समय से चली आ रही कहानी मीडिया से अचानक गायब हो गई. इसे शुरू करने वाले अपने खुद के शासन के मुद्दों को ध्यान में रखते हुए अपने-अपने राज्यों में लौट गए.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)