कुम्भ, कोरोना और चुनाव

सर्वप्रथम यह समझा जाना चाहिए कि ‘‘धर्म से मनुष्य नहीं है बल्कि मनुष्य से धर्म है”

Update: 2021-04-18 09:46 GMT

आदित्य चोपड़ा। सर्वप्रथम यह समझा जाना चाहिए कि ''धर्म से मनुष्य नहीं है बल्कि मनुष्य से धर्म है"। धर्म का स्थूल अर्थ आडम्बर और रस्मो-रिवाज से ले लिया जाता है जबकि मूल अर्थ व्यक्ति के नैतिक व सांसारिक विकास से है। अतः यह कथन कि 'धारयति सः धर्मः' देशकाल और परिस्थितियों के अनुसार आचरण करने की नसीहत देता है। आज भारत में विकट स्थिति बनी हुई है जिसमें एक तरफ हरिद्वार में महाकुंभ चल रहा है और दूसरी तरफ प. बंगाल में चुनाव हो रहे हैं जबकि तीसरी तरफ कोरोना संक्रमण समूची मानवजाति को निगलने के लिए तैयार सा बैठा है। हमें इन परिस्थितियों में अपने धर्म का पालन करना होगा और सबसे पहले धर्म को मानने वाले मनुष्यों को ही बचाना होगा। जिनका धर्म राजनीति है उनका भी यह प्रथम कर्त्तव्य बनता है कि जिन लोगों के कल्याण के लिए राजनीति को खोजा गया वे भी सबसे पहले उन्हें बचायें और धर्मचार्यों का भी यह कर्त्तव्य बनता है कि वे भी समय के अनुरूप धर्म की व्याख्या करें। प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की अपील पर संतों ने कुम्भ का समापन कर दिया है।


इसके साथ ही प. बंगाल में चल रहे चुनावों को देखते हुए चुनाव आयोग ने जो नये नियम लागू किये हैं उनकी वैज्ञानिक नजरिये से समीक्षा किये जाने की जरूरत है। चुनावों की व्यवस्था पूर्ण रूपेण चुनाव आयोग का ही दायित्व है । भारतीय संविधान में चुनाव प्रक्रिया को अत्यन्त पवित्र और शुचिता का दर्जा इस प्रकार दिया गया है कि एक बार यह प्रक्रिया शुरू होने के बाद न्यायालय में भी चुनाव आयोग के फैसले को चुनौती नहीं दी जा सकती। यह हमारे संविधान निर्माताओं की दूरदर्शिता ही थी कि उन्होंने हमारे हाथों में एेसी व्यवस्था सौंपी जिसमें लोकतन्त्र के आधार चुनावों में किसी प्रकार का भी घालमेल न हो सके परन्तु कोरोना एेसा संक्रमण है जिसका सामना मौजूदा पीढ़ी और व्यवस्था कर रही है। इसमें मुख्य चुनौती लोकतन्त्र के मालिक आम मतदाता की जान की सुरक्षा करने की ही है। चुंकि चुनाव आयोग इस चुनाव प्रक्रिया का संरक्षक है अतः उसी की प्राथमिक जिम्मेदारी बनती है कि वह मतदाताओं की जान की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम बांधे।

टैक्नोलोजी उन्नयन के इस युग में दूसरे विकल्पों पर भी विचार किया जाता तो बेहतर होता परन्तु जहां तक धार्मिक या मजहबी रवायतों का सवाल है तो उसमें आम लोगों को स्वयं ही आगे बढ़कर वैज्ञानिक तरीकों को तरजीह देनी होगी। पूरी दुनिया में ईश्वरवादी धर्म भी है और अनीश्वरवादी धर्म भी है किन्तु सभी का लक्ष्य मनुष्य को अधिकाधिक सभ्य व सुंस्कृत बनाना होता है। मैं इस विवाद में पड़ना नहीं चाहता कि मनुष्य को धर्म की आवश्यकता ही क्यों महसूस हुई और विभिन्न धर्मों को चलाने के पीछे मुख्य उद्देश्य क्या रहा होगा? हो सकता है कि समाज के विकसित होने के साथ ही विभिन्न धर्मों का उद्गम भी हुआ है जिससे मनुष्य की जीवन शैली अनुशासित बन सके और ईश्वर के डर से समाज के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह कर सके।

हिन्दू धर्म में मूल रूप से यही भाव गीता में प्रकट होता है जिसे महात्मा गांधी हमेशा अपने पास रखते थे। इसमें कर्म को प्रमुखता इस प्रकार दी गई है कि मनुष्य अपने कार्यों से ही ईश्वर के सत्य को समझ पाता है। ठीक एेसी ही कुरान शरीफ में भी हिदायत दी गई है और कहा गया है कि सच्चाई के रास्ते पर जाने के लिए अपनी अजीज से अजीज चीज की कुर्बानी के लिए तैयार रहना चाहिए। कालान्तर में बेशक रवायतें स्थूल रूप से प्रचिलित की गई और लोग इन्हें ही धर्म समझ बैठे। जबकि हकीकत दुनियावी लालच को छोड़ने की ताकीद है। फिलहाल रमजान का त्यौहार भी चल रहा है और मुस्लिम भाई इसे शिद्दत से मनाते हैं अतः उन्हें भी सोचना होगा कि रमजान के बाद आने वाली ईद के मौके पर वे कोरोना शिष्टाचार का पालन करें और सबसे पहले मुसल-सल-ईमान रखने वाले बन्दों की जान हिफाजत का इंतजाम करें। यह कहावत बेकार में ही नहीं बनी है कि 'जान है तो जहान है' इस कहावत का गूढ़ अर्थ यही है कि दुनिया तभी आपके मतलब की है जब तक आप जिन्दा हैं और सुरक्षित हैं क्योंकि जिन्दगी के सारे मेले जान से ही मयस्सर होते हैं। यह कहावत सभी धर्मों के मानने वालों पर एक समान रूप से लागू होती है और निश्चित रूप से चुनावों पर भी लागू होती है। दरअसल कोरोना संक्रमण सम्पूर्ण मानव जाति को आत्म विश्लेषण करने का अवसर भी दे रहा है। भौतिक सुखों की भाग-दौड़ में जिस प्रकार मानवता कभी-कभी कराहने लगती है, उस तरफ भी नजर दौड़ाने की जरूरत है और सदाचारी बनने के लिए अपने-अपने भगवान या खुदा से यही दुआ मांगने की जरूरत है,

''मेरे राम एह नीच करम हर मेरे

गुणवन्ता हर-हरदयाल

कर किरपा बख्श अवगुण सब मेरे।''


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