अफगानिस्तान में रहता है एक भारत: जहां दिलों में धड़कता है बॉलीवुड और सपनों में रहती हैं हिंदी फिल्में

इंसान सबसे खास होते हैं और उनकी सबसे खास ताकत ये ही है- प्यार

Update: 2021-09-08 09:53 GMT

आशीष कौल.

ये बहुत महंगा है" मैंने अपने हाथ झाड़ते हुए कहा। मेरे इस रवैये से थोड़ा हैरान परेशान सा वो फल वाला, जो एकदम धूल-धूसरित से कपड़ों में ठेला खींच रहा था मेरी तरफ देखकर बोला- आप हिंदुस्तान से हैं? मैंने कहा हां। ये सुनते ही उसकी आंखों में एक खास चमक दिखाई दी।

वो बोला- "हिंदुस्तानी मेहमान के लिए सब फ्री है, आप सब ले जाओ"। मुझे पता था की वो लफ्फाजी नहीं कर रहा बल्कि सच बोल रहा है।
इंसान सबसे खास होते हैं और उनकी सबसे खास ताकत ये ही है- प्यार! जो हर दीवार को गिरा देता है, हर सरहद को मिटा देता है। खालिद यूसुफ (बदला हुआ नाम) पूरी जिंदगी के लिए दोस्त बन गया। वो अपने ठेले को लावारिस छोड़कर मुझे काबुल के मसालों के बाजार में काफी अंदर तक ले गया। मुझे बड़ी शान से हिंदुस्तान से आया अपना नया दोस्त बताता। आज करीब पंद्रह साल बाद मैं वापस एक सफर पर हूं, अपने काबुलीवाला की तलाश है- काश वो अभी भी जिंदा हो!
"क्या ये वाकई में हो रहा है? हां मैं जाना चाहता हूं!" ये मेरा पहला रिएक्शन था जब मुझसे पूछा गया कि क्या मैं अफगानिस्तान जाना चाहता हूं, क्योंकि कोई और नहीं जाना चाहता था। मेरे जहन में लड़ाई और वहां फूटते गोलों और मिसाइलों की तस्वीरें घूमने लगीं। कश्मीर में मेरे अपने घर में मैंने दहशत के ऐसे मंजर कई बार देखे थे इसलिए इस डर को दरकिनार करना मेरे लिए मुश्किल नहीं था।
सूरज उगने से पहले की फ्लाइट वो भी हमारे नेशनल कैरियर की, ये तकलीफ काबुल जाने के जोश और रोमांच के आगे छोटी लग रही थी। हमारे असाइनमेंट के अपने प्रोफेशनल खतरे तो थे मगर मेरे दिल के किसी कोने में एक खास भावना थी एक निजी जुड़ाव था काबुल के साथ जो मुझे महसूस हो रहा था।
काबुलीवाला और भारत-अफगानिस्तान
भगवान राम और कई महान राजाओं के साथ मिलकर लड़ते अफगानों के जज्बे और हिम्मत के मैंने कई किस्से सुने थे। मगर बलराज साहनी ने जिस काबुलीवाला को हमेशा के लिए अमर कर दिया, मुझे लगता है वो भारतीयों के बीच सबसे जानी मानी कहानी और सबसे फेमस अफगान है।
एक वक्त ऐसा भी था जब 50-60 के दशक में लगभग हर फिल्म में "तुम क्या करती" कुछ इस तरह बोलने वाला एक ना एक पठान का किरदार जरूर होता था। मैं हमेशा ऐसी जगह जाना चाहता था जहां बहादुरी और शौर्य सिर्फ शब्द नहीं, जीने का सलीका हो- जो टीवी न्यूज से चुपकी हुई ये नई पीढ़ी से बिल्कुल अलग है।
अफगानिस्तान, यानी एक अनोखी खूबसूरती वाला देश। इसकी खूबसूरती मगर कश्मीर की खूबसूरती से अलग एक नई किस्म की खूबसूरती थी जिससे मैं जल्द ही दो-चार होने वाला था। दिल्ली से काबुल की फ्लाइट काफी अच्छी थी जिसमें महान गजल गायक जगजीत सिंह और उनकी टीम भी थी। फ्लाइट अटेंडेंट अच्छे थे जो मुस्कानों और बियर कैन देने में कोई कंजूसी नहीं कर रहे थे। कुछ पल को तो लगा ये "इंडियन" नहीं कोई प्राइवेट एयरलाइन है।
ये मरहूम जगजीत साहब का असर है या बदलते भारत की तस्वीर? मैंने सोचा! मैंने नेशनल फ्लाइट कैरियर में काम कर रहे अपने दोस्त जितेंद्र भार्गव को भी एसएमएस कर दिया था पर उनका कोई जवाब न आया। उनको लगा होगा कि मैं उनकी खिंचाई कर रहा हूं। वो मेरे इस तरह के मैसेज के आदि नहीं थे। मध्य एशिया के उस बर्फीली पहाड़ियों से घिरे रेगिस्तान के बीच लैंड करते वक्त सब परेशान से थे। उतरने पर वहां के 4 डिग्री के तापमान ने कईयों का खून जमा दिया मगर मुझे कुछ खास परेशानी नहीं हुई। मुझे इतने कम तापमान की आदत सी थी।
हमें जल्द ही प्लेन से बाहर एक्जिट की तरफ ले जाया गया और वो हमारा इंसानियत और शांति से पहली मुलाकात थी, उस जंग और दहशत ग्रस्त मुल्क में। कई लोगों हमारे स्वागत के लिए खड़े थे। खासतौर पर जगजीत सिंह जी के स्वागत में। अगले दो दिन उनको जो प्यार मिला उससे वो खुद अचंभे में थे। लोग उनको छूना, उनके पास आना, फोटो खिंचवाना चाहते थे। और अगर काफिर हो जाने का डर ना हो तो वो उनके लिए किसी भगवान से कम नहीं थे जो अपनी जादूई आवाज से उन्हें उनकी तकलीफों से बाहर निकालने आया है! हम अपने होटल काबुल सरीना के लिए एक कैरेवन में निकले जिसे 16 कमांडोज ने गार्ड किया हुआ था। ये बात थोड़ी देर में हजम हुई कि हम यहां स्टेट गेस्ट थे।
उजड़ी हुई गलियों, खंडहरनुमा मकानों और चारों तरफ जमी हुई धूल के बीच एक अनोखी सभ्यता एक गुजरे हुए दौर की तस्दीक कर रही थी। ये कुछ-कुछ कश्मीर जैसा ही था। नफरत और आतंक से बर्बाद की गई दो खूबसूरत जन्नतें। मैनें खोलते हुए टीवी चलाया और रात के स्टेट डिनर के लिए तैयार होने लगा। मुझे लोकल न्यूज चैनल्स के साथ कई सारे म्यूजिक चैनल देखकर ताज्जुब हुआ जिनपर नए गाने बज रहे थे। यूं लगा जैसे टीवी बता रहा हो कि 'तालिबान जा चुका है!' डिनर के वक्त अफगान सरकार के लगभग सभी जरूरी लोग और कुछ खास अफगान नेशनल्स मौजूद थे।
खैर मुझे वो रात एक और खास वजह से याद रही। मेरे हाई स्कूल के एक दोस्त से उस रात मैंने हाथ मिलाया था जो अब एक बहुत बड़ी हस्ती था- मेरा मतलब अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई। काबुल वाकई मेरी जिंदगी का अहम हिस्सा रहा है।
उन्होंने भारत और भारत की एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री की जमकर तारीफ करी। जगजीत सिंह जी के साथ फोटो खिंचवाने का सिलसिला यहां भी वैसे ही जारी था। मैं इस फॉरमैलिटी से थोड़ा सा उक्ता गया था सो होटल के बाहर टहलने का फैसला किया। मुझे बड़ी विनम्रता से बताया गया कि मैं सुरक्षा कारणों से ऐसा नहीं कर सकता। गार्ड के साथ जाना बेमानी था। मैं जोर से चिल्लाया। रात के 10.30 बजे मेरे साथ ऐसा नहीं हो सकता। तब मुझे ऐहसास हुआ कि आने वाली चंद रातों तक मैं काबुल के इस होटल में ही कैद रहूंगा।
मेरे पास दो ही रास्ते थे। या तो रेस्टोरेंट में रहूं और फिर पार्टी में। मैनें तीसरा रास्ता चुना और अपने होटल के कमरे में जाकर सुबह का इंतजार करने लगा। अगले कुछ दिनों में हमें इस पोस्ट वॉर सोसाइटी के ओपिनियन मेकर्स के साथ स्टेट इंटरेक्शन करने थे। काम शुरू हो चुका था और तभी मुझे रास्ता मिल गया! होटल के पीछे बाउंड्री वॉल मिसाइल हमले में टूट गई थी। लोग उसे दोबारा बनाने में मशगूल थे और मैं वहां से निकल गया। काबुल की गलियां उत्तर भारत के किसी गांव जैसी ही थीं। सड़के हमारी मुंबई की तरह थीं। मैं यूं ही गलियों और बाजारों में घूमता रहा। हिंदी फिल्मों के गाने और पोस्टर हर जगह सुनाई और दिखाई दे रहे थे। तब मुझे इंडियन एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री की ताकत का एहसास हुआ जिसने अभी भी अफगानी लोगों में उम्मीद जिंदा रखी थी। वो हर फिल्म और गाने में शांति और खुशी खोज लेते थे। वाकई में हर दिल में यहां बहादुरी और जज्बा धड़कता है। ये लोग आपकी आँखों में
झांकते हैं और अपनी सादगी और शीरीं चोई (कहवा का स्थानीय प्रकार) से आपका दिल जीत लेते हैं। मैं लोगों से बात करना चाहता था। इसी बीच मैं एक मेवा (ड्राई-फ्रूट) बेचने वाले के पास गया। उससे भाव पूछा और बताया कि ये काफी महंगा है। उसने अपनी टूटी फूटी हिंदुस्तानी-उर्दू में हंसकर जवाब दिया कि ये देश गरीब है। मैने उससे पूछा कि इस देश के एक मेहमान को किशमिश और पिस्ता कितने में दोगे? थोड़ी देर खामोश रहने के बाद उसने पूछा क्या मैं हिंदुस्तानी हूं। मैंने हां कहा। और उस वक्त मैंने एक साथ खुशी, गर्व और सम्मान, सब महसूस किया जब उसने कहा कि 'मैं हिंदुस्तानी मेहमान के लिए तो सब मुफ्त में देगा।'
मुझे यकीन है आमतौर पर अफगानी लोग इंडिया के बारे में ऐसा ही सोचते हैं। पूरे दिन मुझे रह-रहकर इंडिया और इंडियन एंटरटेनमेंट से उनकी मोहब्बत के सबूत मिलते रहे। एक टीवी चैनल के पत्रकार ने मुझे बताया कि उसे बेचैनी रहती है अगर वो हफ्ते में 3-4 बार शाह रुख खान की देवदास न देखे। महानायक अमिताभ बच्चन के लिए उनके प्यार की तो खैर कोई सीमा ही नहीं है जो खुदा गवाह फिल्म में अपने पठान किरदार बादशाह खान के चलते बच्चे-बच्चे के पसंदीदा हैं। वो अमिताभ बच्चन को अपना समझते हैं और बड़े चाव से फिल्म की शूटिंग के लिए उनके अफगानिस्तान प्रवास के किस्से सुनाते हैं।
अफगानों में दिलों में धड़कता भारत
भारत वाकई अफगानों के दिल में बसता है और मुझे फख्र है हम अपनी कला और मोहब्बत से दुनिया के इस हिस्से पर राज कर रहे हैं। हर कोई इंडियन एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का फैन था। इस लिस्ट में हमारा ड्राइवर खालिद (बदला हुआ नाम) भी शामिल था जो इंडियन म्यूजिक का फैन था और हर वक्त हिंदी गाने ही चलाता था। तालिबान की कैद में गुजारे 6 महीनों के किस्से सुनाते वक्त बीच बीच में वो कोई-कोई गाना वो गुनगुना भी लेता था।उसके शरीर पर कैद के दौरान टॉर्चर के निशान, उसके लिए किसी युद्ध की गौरव गाथा से कम नहीं थे।
मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि इतनी दूर, एक क्रूर पड़ोसी के चलते एक दूसरे से कटे हुए भी, एक पराई जगह पर मैं सबके साथ आसानी से कैसे जुड़ पा रहा था। शायद जवाब हमारे इतिहास में है जब भारत और अफगानिस्तान पड़ोसी हुआ करते थे। अगर आपने महाभारत सीरियल देखा है तो आप जानते होंगे कि कौरवों की मां कंधार से थीं। इस व्यवस्था में सिख भी एक माइनॉरिटी के तौर पर खूब घुल-मिल गए हैं।
भारत हर अफगान के लिए एक सपने जैसा है। भारत का नाम सुनते ही उनकी आंखों की चमक देखने लायक होती है और हर कोई मायानगरी बंबई के बारे में जानना चाहता है। अगले हफ्ते में, अफगान सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा आयोजित एक प्रेसर में हमने कुछ चैनलों की मौजूदगी और पश्तो और दारी भाषा में प्रोगाम्स चलाने और फिर एक अफगानिस्तान के लिए एक खास चैनल शुरू कर लोकल प्रोग्रामिंग की की बात पर जोर दिया।
सरकार के अधिकारियों ने अफगानिस्तान की तरक्की में भारत और भारत के मीडिया और एंटरटेनमेंट के योगदान की सराहना की। मुझे ताज्जुब हुआ जब अकेले में मुझए समझाया गया कि पाकिस्तानी कलाकारों की तारीफ न करूं। पहली बार किसी इस्लामिक मुल्क में लोगों को पाकिस्तान शब्द से इतनी नफरत करते देखा था। आज अफगानी लोग ज्यादा समझदार हैं। दो दशक की जंग के बाद वो धर्म और इंसानियत के खिलाफ आतंक में अंतर
समझते हैं जिसका हिस्सा वो खुद भी रहे हैं। जंग से उबरता हुआ होने के बावजूद अफगानिस्तान काफी मॉडर्न है। वहां सड़कों पर कंडोम बिकते दिखाई दिए। ऐसा करने वाला वो शायद पहला और अकेला इस्लामिक मुल्क है। और वहां शायद दुनिया का सबसे लंबा मनी चेंजिंग मार्किट भी था। फटेहाल कपड़ो में अफगान लोग नोटों के बंडलों के साथ खड़े थे और डॉलर से लेकर हर बड़ी विदेशी करंसी को एक्सचेंज कर रहे थे, बिना किसी डर और सिक्योरिटी के। ऐसी उम्मीद तो इंडिया में क्या कहीं भी नहीं की जा सकती थी।
एक और खास बात थी, जगह-जगह कंप्यूटर इंस्टीट्यूट्स के इश्तिहार और अमेरीकन स्टाइल अंग्रेजी सीखने का दीवानापन! मैने देखा कि यहां लोग आसानी से अमेरिकन एक्सेंट में अंग्रेजी बोल रहे थे। मुझे उम्मीद है सेंट्रल एशिया के लिए काबुल वैसा ही हो जैसे इस दुनिया के लिए भारत.
शाम को गाला में जगजीत सी का परफॉरमेंस था। हमें रशियान द्वारा बनाए गए फेमस काबुल पॉलिटेक्निक के ऑडिटोरियम में ले जाया गया। उसमें 2500 लोग आ सकते थे और यकीम मानिए इससे दोगुने लोग बाहर कतार में लगे थे जो अंदर आने के लिए कितनी भी कीमत देने को तैयार थे। उनकी एक-एक गजल लोगों को याद थी और जिस तरह वहां की औरतें उनके साथ गा रही थीं, ये देखकर यकीन कर पाना मुश्किल था। वो शाम शानदार थी और मैं भी बहुत खुश था क्योंकि मैनें अफगानिस्तान का वो नजारा देखा था जिसे बाकि दुनिया शायद ही जानती हो। वो देश जो मेरी बचपन की य़ादों का हिस्सा रहा है जिसमें मेरे दादाजी कंधार, पेशावर और रांची में फैले हमारे ईरानी कालीनों के व्यापार के किस्से बड़ी शान से सुनाते थे। वो सब जो 1947 के बंटवारे और तबाही में लुट गया था। आखिरी दिन से पहले मैं महान बेहजाद सिनेमा तक पंहुचा जो 50 से 70 के दशक तक फ्रेंच फिल्में देखने का केंद्र हुआ करता था।
इस बार मुंबई वापसी की फ्लाइट भी यादगार थी, क्योंकि प्लेन का एसी खराब हो गया था। अब मुझे समझ आया मेरे दोस्त जीतेंद्र भार्गव ने तारीफों भरे मेरे पिछले मैसेज का जवाब क्यों नहीं दिया। वो शायद विश्वास ही न कर पाएं हो कि वो सच है। मगर इस दौरान मैं बार बार उस देश और उन लोगों की याद में खो जाता था और गर्व करता था कि मैं ऐसे देश में रहकर आया हूं जहां लोग एक इंसान द्वारा बनाए गए नर्क की प्रताड़ना झेलने के बावजूद भी मुस्कुराना जानते हैं।
मैं सोच रहा था कि भारत अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच राजनीतिक हालात कितने अलग होते अगर राजीव गांधी, गुलबदन हिकमतयार की काबुल में सरकार बनाने में मदद कर देते जिसके बदले कश्मीर में किसी भी अफगानी या विदेशी आतंकी को न घुसने देने का वादा किया गया था। आखिरकार 1989/ 90 में कश्मीर में आतंक की पहली दस्तक अफगानी आतंकियों ने ही दी थी।
खैर, ऐसे देश में जाने के बाद ही एहसास होता है कि अपने देश में जो आजादी हमें मिलती है उसकी क्या कीमत है। मुझे ऐसा ही एहसास पहले भी हुआ है जब मुझसे मेरे ही कश्मीर में रहने का हक छीन लिया गया था। काबुल ने वो यादें ताजा कर दीं और मेरा यकीन भी कि एक दिन अमन जरूर जीतेगा! रही मेरे काबुल के दोस्तों की बात, तो मैं उन्हें रोज दुआओं में याद करता हूं, जब तक किस्मत मुझे वापस उस महान धरती पर जाने का मौका नहीं देती।
(आशीष कौल बिज़निस लीडर और वरिष्ठ मीडिया कर्मी के साथ साथ बेस्ट सेलिंग लेखक हैं जिन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में वक़्त गुज़ारा है।)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं, जो एक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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