अमृत महोत्सव : दर्द अभी जिंदा है-2
पिछले अंक में मैंने भारत-पाक विभाजन के समय हुए दंगों का उल्लेख किया था। देश के हिन्दुओं ने ऐसे-ऐसे भयंकर मंजर देखे जिनको शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता।
आदित्य नारायण चोपड़ा; पिछले अंक में मैंने भारत-पाक विभाजन के समय हुए दंगों का उल्लेख किया था। देश के हिन्दुओं ने ऐसे-ऐसे भयंकर मंजर देखे जिनको शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। चारों तरफ हलचल मची हुई थी। कबायलियों के भेष में पाकिस्तान ने आक्रमण कर दिया। मुजफ्फराबाद, भिम्बर, अलीबेग, नौशेरा, बारामूला, सब तरफ तांडव मच गया। आक्रांता जेहाद कर रहे थे। यह पाकिस्तान का जेहाद था। ये पाकिस्तान बनने की खुशी मना रहे थे। ये जिन्ना के लाडले सैनिक थे। ये लियाकत अली के लख्ते जिगर थे। इन्हें इस बात का अहसास हो गया था कि हिन्द की फौज से जरूर टक्कर होगी, अतः उससे पहले जश्न मना लिया जाए। 10 साल से लेकर 60 वर्ष तक उम्र की किसी औरत तक को इन वहशियों ने नहीं छोड़ा। यहां तक कि अस्पतालों में इलाज करवा रही औरतें भी महफूज न रहीं। 95 हजार हिन्दू कश्मीर घाटी में कत्ल कर दिए गए। महाराजा ने भारत से विलय का निर्णय ले लिया। उधर विलय हुआ, उधर 27 अक्तूबर को भारत की सेना श्रीनगर पहुंच गई। पाकिस्तानी फौज मुजफ्फराबाद से श्रीनगर की ओर बढ़ रही थी।श्रीनगर में ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह फौज की कमान सम्भाल रहे थे। उन्होंने श्रीनगर से 115 किलोमीटर की दूरी पर द्रोमेल नामक स्थान पर मुकाबला करने का निर्णय लिया। कुछ ऐसी स्थिति बनी कि ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह को पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा। उन्होंने उड़ी में दुश्मन से लोहा लिया और बड़ी संख्या में पाकिस्तानी हताहत हुए, पर निर्णायक युद्ध 'शाल्टंग' में हुआ। ऐसी सुदृढ़ व्यूह रचना की कि एक बार जो पाकिस्तानी सैनिक आगे आए, फिर वापस नहीं गए। शाल्टंग पाकिस्तानियों का कब्रिस्तान बन गया।संपादकीय :नूपुर को राहतअमृत महोत्सवः दर्द अभी जिंदा हैमध्य प्रदेश में लोकतन्त्र जीतासंसद का मानसून सत्रसंसद का मानसून सत्रकर्ज जाल में फंसे राज्यसंक्षेप में यहां सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि 10 दिनों में अर्थात् 7 नवम्बर, 1947 तक सारी कश्मीर घाटी को भारत की सेना ने आतंकवादयों से, जो कबायलियों के भेष में आक्रमण कर रहे थे, मुक्त करा लिया। इसके बाद शेष क्षेत्रों की मुक्ति का अभियान छेड़ा जाना था। शेष क्षेत्रों पर आक्रमण क्यों नहीं किया जा सका, इसमें शेख की क्या भूमिका थी। उनकी कुटिलता किस कदर विद्रूप हो गई, नेहरू जी ने क्या भूमिका अदा की। ब्रिगेडियर परांजपे वहां क्यों मजबूर हो गए, एजैंट जनरल न्यायमूर्ति कुंवर दलीप सिंह ने वहां जाकर क्या देखा? इन सब विषयों पर मैं पहले भी लिख चुका हूं। अतः अच्छा यही होगा कि उन विषयों को छोड़कर आगे बढ़ें और उस मुकाम पर आएं जब आक्रमण के बदले सारा मामला ही संयुक्त राष्ट्र पहुंच गया।यह राष्ट्र की बहुत बड़ी त्रासदी थी। यह ऐसी भूल थी जो जानबूझ कर की गई। यह ऐसी भूल थी जो अक्षम्य है। भारत के लोग मूलतः बड़े भावुक हैं। जिससे प्यार करते हैं, उससे किसी न किसी तरह का रिश्ता जोड़ना चाहते हैं। किसी को पिता बना लेंगे, किसी क चाचा बना लेंगे, किसी को ताऊ बना लेंगे, किसी को भाई बना लेंगे। रिश्तों की बड़ी मर्यादा होती है और राजनीति में अक्सर ऐसी मर्यादा रह नहीं पाती। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच जारी तनातनी, दुनिया की सबसे लम्बे वक्त तक चलने वाली सामरिक समस्या कही जा सकती है। इसी तनातनी का नतीजा है कि दोनों देशों ने एटमी हथियार विकसित किए, यानी आज की तारीख में भारत और पाकिस्तान के बीच जो विवाद है, उसे इलाकाई तनातनी कहकर अनदेखा नहीं किया जा सकता।किसी को पक्के तौर पर तो नहीं पता। मगर बंटवारे के दौरान करीब सवा करोड़ लोग भारत से पाकिस्तान और पाकिस्तान से भारत आए-गए। इस दौरान भयंकर साम्प्रदायिक हिंसा भड़क उठी। हर समुदाय के लोग पीड़ित भी थे और हमलावर भी। देश के बंटवारे के दौरान मजहबी फसाद की वजह से पांच से दस लाख के बीच लोग मारे गए। हजारों महिलाओं को दूसरे समुदाय के मर्दों ने अगवा करके उनके साथ बलात्कार और दूसरे जुल्म किए।हिंसा का सबसे ज्यादा असर पंजाब सूबे पर पड़ा। यहां बरसों से सिख, मुसलमान और हिन्दू आपस में मिल-जुलकर रहते आए थे। वो एक जुबान बोलते थे। उनकी विरासत सांझी थी। लेकिन देश के बंटवारे के बाद ये लोग एक-दूसरे के दुुश्मन और खून के प्यासे हो गए। पूर्वी पंजाब में रहने वाले मुसलमान, पश्चिमी पंजाब यानी पाकिस्तान भाग रहे थे। वहीं पश्चिमी पंजाब में रहने वाले हिन्दू और सिख, पूर्वी पंजाब यानी भारत आने को मजबूर हुए। अगले अंक में मैं पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की सच्चाई की दास्तान बताऊंगा कि कैसे इस खूबसूरत इलाके को आतंक का गढ़ बना दिया गया।