अमृत महोत्सव : स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय वैज्ञानिकों के योगदान का उत्सव

अमृत महोत्सव

Update: 2021-09-10 12:27 GMT

वर्ष 2021 ब्रिटिश शासन से भारत की स्वतंत्रता का 75वां वर्ष है. इस महत्वपूर्ण अवसर को और भी खास बनाने के लिए, विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत आने वाले कई संस्थानों जैसे, विज्ञान प्रसार, विज्ञान भारती आदि, ने साथ मिलकर अपने साल भर चलने वाले समारोह 'स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव' की घोषणा की है. 'भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और विज्ञान संचारकों की भूमिका' विषय पर एक महासम्मेलन 20-21 अक्टूबर, 2021 को आयोजित किया जाएगा. इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य आजादी की लड़ाई में वैज्ञानिकों के योगदान, उनके संघर्षों और उपलब्धियों के बारे में आम लोगों को जानकारी देना है.

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हुए संघर्ष और चुनौतियों में कई गुमनाम वैज्ञानिक और विज्ञान संचारक भी शामिल थे. उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा भेदभाव और उपेक्षा का सामना करना पड़ा. उन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद, हमारे वैज्ञानिक तथा विज्ञान संचारक राष्ट्र और समाज के भले के लिए विज्ञान के इस्तेमाल के साथ-साथ विज्ञान संचार का भी काम करते रहे. इसलिए हमें अपने समारोहों को केवल उन स्वतंत्रता सेनानियों तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए, जिन्होंने आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दी, बल्कि हमें उन महान वैज्ञानिकों को भी याद करने की जरूरत है, जो अनेक कठिनाइयों के बावजूद भी अपनी अदम्य वैज्ञानिक विचारधारा के लिए डटकर खड़े रहे.
भारत में अंग्रेजी शिक्षा और आधुनिक विज्ञान का प्रवेश
सन् 1757 के बहुचर्चित प्लासी के युद्ध में अंग्रेजों की जीत के बाद धीरे-धीरे अंग्रेजों का आधिपत्य पूरे भारत पर स्थापित हो गया. हम सभी जानते हैं कि भारत में आधुनिक विज्ञान के विकास का श्रेय उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में शुरू हुई अंग्रेजी शिक्षा को जाता है. लेकिन अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली को लागू करने के लिए उसके मूल कर्णधारों लॉर्ड बेंटिक और थॉमस मैकाले का उद्देश्य प्रशंसनीय नहीं था. सन् 1813 के अपने चार्टर में उन्होने कहा कि 'हमारा मकसद लोगों का ऐसा वर्ग तैयार करने का है, जो रंग और शरीर से भले ही भारतीय हों, लेकिन उनका खानपान, विचार, नैतिकता और बौद्धिकता अंग्रेजों जैसा हो.'
पूरी तरह स्पष्ट है कि इस चार्टर का उद्देश्य अंग्रेजी शासन की बढ़ती हुई नौकरशाही के निचले तबकों के लिए क्लर्क और सहायकों की फौज तैयार करना था, हालांकि बाद में यह उस तरह से नहीं काम कर पाया जैसा कि सोचा गया था. अंग्रेज़ विज्ञान और तकनीक के महत्व से पूरी तरह से परिचित थे, इसलिए प्लासी के युद्ध के मात्र दस साल बाद 1767 में रॉबर्ट क्लाइव ने सर्वे ऑफ इंडिया की नींव रखी. अंग्रेज़ यह अच्छी तरह से जानते थे कि बगैर विज्ञान और प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किए वे इस उपमहाद्वीप (भारत) को नहीं समझ पाएंगे. इस संगठन के जरिए उन्हें अपने साम्राज्य के विस्तार के साथ-साथ इस देश के भौगोलिक बनावट को जानने में काफी मदद मिली.
अंग्रेज़ यह भली भांति समझ गए थे कि अगर भारतीय लोगों को आधुनिक विज्ञान और तकनीकी विकास से दूर रखते हैं तो वे बेहद कुशलतापूर्वक इस देश पर शासन कर सकेंगे. हालांकि हमारे वैज्ञानिकों ने अपने आत्मविश्वास, स्वाभिमान और देश प्रेम की भावना के साथ अंग्रेजों के भेदभावपूर्ण नीति के खिलाफ अपना संघर्ष जारी रखा.
भारतीय वैज्ञानिकों का सत्याग्रह
प्रमथनाथ बोस जिओलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया में वैज्ञानिक के पद पर नौकरी पाने वाले पहले भारतीय थे. बेहतर योग्यता होने बावजूद वह डायरेक्टर के पद के लिए पदोन्नति से वंचित किए गए थे, जो कि उनके एक बेहद कनिष्ठ अंग्रेज़ को दे दिया गया था. अंग्रेजों की इसी भेदभावपूर्ण नीति के चलते प्रमथनाथ बोस ने 1903 में जिओलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया से इस्तीफा दे दिया. बाद में वे एक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक के रूप में विख्यात हुए और 1907 में टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड की स्थापना का नेतृत्व किया.
औपनिवेशिक शासन के दौरान कई भारतीय वैज्ञानिकों को लगातार भेदभाव का सामना करना पड़ा और उन्हे वैज्ञानिक अनुसंधान करने से रोका गया था. इसके एक सबसे प्रसिद्ध उदाहरण जगदीश चंद्र बोस हैं. बोस एक देशभक्त और सांस्कृतिक राष्ट्रवादी थे और उन्हें अपने देश की प्राचीन विरासत पर गर्व था. उन्होंने पश्चिमी देशों के सामने साबित कर दिखाया कि भारत के लोग भी विश्वस्तरीय वैज्ञानिक अनुसंधान कर सकते थे. बोस भौतिकी, जीव विज्ञान और वनस्पति विज्ञान के गहन अध्येता थे. रेडियो तरंगों के साथ ही उनकी पेड़-पौधों और भौतिकी के क्षेत्र में भी कई मौलिक उपलब्धियां हैं.
1885 में इंग्लैंड से प्राकृतिक विज्ञान की उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद बोस भारत लौटे और प्रेसीडेंसी कॉलेज में उन्हें भौतिकी के प्राध्यापक के रूप में नियुक्ति मिली. परंतु यहाँ उनके साथ खुलेआम भेदभाव हुआ. वहाँ एक ही पद पर भारतीयों को अंग्रेजों की तुलना में एक तिहाई वेतन मिलता था. बोस ने इस पक्षपात का बेहद अनूठे ढंग से विरोध किया, वेतन लेना अस्वीकार किया और तीन साल तक तमाम आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद बगैर वेतन काम करते रहे. आखिरकार 1988 में ब्रिटिश प्रशासन को बोस के न्यायोचित मांग के आगे झुकना पड़ा और तब जाकर उन्हें बकाया राशि के साथ पूरा वेतन मिला.
विज्ञान भारती (विभा) के राष्ट्रीय संयोजक जयंत सहस्त्रबुद्धे का कहना है कि एक भारतीय वैज्ञानिक ने संघर्ष किया अन्याय के विरोध में, भेदभाव के विरोध में- क्या यह सत्याग्रह नहीं था? महात्मा गांधी के 1917 में चंपारण में किए गए सत्याग्रह की ही तरह.
पी.सी. राय : 'विज्ञान प्रतीक्षा कर सकता है लेकिन स्वराज नहीं'
स्वदेशी वैज्ञानिकों का पुनर्जागरण काल स्वतंत्रता संघर्ष के साथ-साथ जारी रहा और भारतीय समाज में वह चलता रहा. बोस के बाद आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय आए. पी.सी. राय एक प्रबुद्ध रसायनशास्त्री और प्राध्यापक थे. आचार्य राय देशभक्ति की भावना से पूरी तरह से ओतप्रोत थे. उन्होंने देश की स्वतंत्रता को हमेशा सबसे ऊपर रखा. उनके मुताबिक विज्ञान मानव जाति की भलाई के लिए है और इसकी राह राजनीतिक स्वतंत्रता से होकर गुजरती है, वरना विज्ञान का लाभ आम लोगों को न मिलकर उन पर राज करने वालों को मिलेगा. वह अपने विद्यार्थियों से अक्सर कहा करते थे: 'विज्ञान प्रतीक्षा कर सकता है लेकिन स्वराज नहीं'.
आचार्य राय की स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भागीदार थी. उन्होंने असहयोग आंदोलन के दौरान कांग्रेस के रचनात्मक कार्यों में मुक्तहस्त आर्थिक मदद भी दी थी. आचार्य राय अपने एक मशहूर वक्तव्य में कहा था: "मैं रसायनशाला का प्राणी हूँ. मगर ऐसे मौके भी आते हैं जब वक्त का तकाज़ा होता है कि टेस्ट-ट्यूब छोड़कर देश की पुकार सुनी जाए." कलकत्ता में गांधी जी की पहली सभा कराने का श्रेय भी आचार्य राय को ही जाता है. बंगाल के 1922 के बाढ़ और अकाल में उन्होंने चंदा इकट्ठा कर लाखों रुपए जमा किए और पीड़ितों की मदद की.
भारत के 'विज्ञान रत्न' सर सीवी रमन
रमन प्रभाव की खोज के लिए सर सीवी रमन को 1930 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया. सदियों तक विदेशी शक्तियों द्वारा शासन किए जाने के बाद इस अन्तर्राष्ट्रीय गौरव से भारतीय वैज्ञानिक समाज का आत्म-सम्मान बुलन्द हुआ. एक भारतीय वैज्ञानिक को, जिसने सारा अनुसंधान भारत में ही रहकर किया हो, उसे दुनिया का सबसे बड़ा सम्मान मिलना सच में बेहद गर्व की बात थी. रमन स्वीडन के स्टॉकहोम में नोबेल पुरस्कार लेने गए थे. किंग गुस्टाफ ने जब नोबल पुरस्कार के लिए उनके नाम का ऐलान किया तो रमन विनम्रता की भावना से अभिभूत हो उठे. उन्होने अचानक ब्रिटिश राष्ट्र ध्वज को लहराते हुए देखा. उनकी आँखें आंसुओं से भर गईं और वे सोचने लगे, 'मैं नोबल पुरस्कार पाने वाला भारत का ऐसा नागरिक हूँ, जो ब्रिटेन का गुलाम है.'
ऊपर हमने कुछ चुनिंदा वैज्ञानिकों की ही संक्षिप्त चर्चा की है, सच तो यह है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हमारे वैज्ञानिकों को जिस तरह की कठिनाई झेलनी पड़ी है और आजादी के प्रति उनकी दीवानगी पर अगर विस्तृत अध्ययन किया जाए तो शोध ग्रंथों का ढेर लग जाएगा. आज जब हम आजादी का 75वां वर्षगांठ मना रहें हैं तब हमारी यह कोशिश होनी चाहिए कि आजादी की लड़ाई में वैज्ञानिकों का जो योगदान रहा, वह आम लोगों को बताया जाए. अस्तु!
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए  जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
 
प्रदीप, तकनीक विशेषज्ञ
उत्तर प्रदेश के एक सुदूर गांव खलीलपट्टी, जिला-बस्ती में 19 फरवरी 1997 में जन्मे प्रदीप एक साइन्स ब्लॉगर और विज्ञान लेखक हैं. वे विगत लगभग 7 वर्षों से विज्ञान के विविध विषयों पर देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिख रहे हैं. इनके लगभग 100 लेख प्रकाशित हो चुके हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त की है.


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