केंद्र सरकार के प्रयत्नों से हिंदी, मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, असमिया, डोगरी, कश्मीरी और पंजाबी आदि अन्य भाषाओं को समर्थन, सम्मान और स्वीकृति प्रदान करने से स्थिति कुछ संतुलित तो हुई है, किंतु अभी बहुत काम करने की आवश्यकता है। मातृभाषा में शिक्षण शिक्षार्थी की बौद्धिक क्षमताओं के अधिकतम विकास और भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह भारत को वैश्विक ज्ञान शक्ति का केंद्र बनाने की महत्वाकांक्षी परियोजना की आधारशिला है। भारत के सांस्कृतिक गौरव की प्रतिष्ठा का प्रस्थान बिंदु भारतीय भाषाओं का पारस्परिक संपर्क, संवाद और संगठन है। अंग्रेजी वर्चस्ववाद से निपटने के लिए भारतीय भाषाओं को एक-दूसरे के निकट आने और उनके आपसी अपरिचय एवं अलगाव को मिटाने की दिशा में प्रयत्नशील होने की आवश्यकता है। भारतीय भाषाओं के विकास, प्रचार-प्रसार और आपसी संपर्क-संवाद में देवनागरी लिपि की निर्णायक भूमिका हो सकती है।
तमाम भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठतम साहित्य को देवनागरी लिपि में लिप्यांतरित करके बहुसंख्यक और व्यापक हिंदी समाज तक लाने की जरूरत है। गृह मंत्री के अनुसार पूर्वोत्तर के नौ समुदाय अपनी भाषाओं की लिपि के रूप में देवनागरी लिपि को अपना चुके हैं। पूर्वोत्तर के सभी आठ राज्यों ने दसवीं कक्षा तक हिंदी को अनिवार्य बनाने पर भी सहमति व्यक्त की है।
सभी भारतीय भाषाओं द्वारा राष्ट्रलिपि या संपर्क लिपि के रूप में देवनागरी लिपि को अपनाने की बात राजा राममोहन राय, लोकमान्य तिलक, महर्षि दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी, आचार्य विनोबा भावे, कृष्णास्वामी आयंगर, मुहम्मद करीम छागला और 'देवनागरी के नवदेवता' कहे जाने वाले बिनेश्वर ब्रह्म ने समय-समय पर की। भारतीय भाषाओं की एक लिपि होने से उनके बीच का अपरिचय, अविश्वास और दूरी मिटेगी। वे एक-दूसरे के अधिक निकट आ सकेंगी। यह एक दूरगामी महत्व की परियोजना है। संस्कृत से उद्भूत भारतीय भाषाओं और लिपि-हीन भाषाओं एवं बोलियों की लिपि के रूप में देवनागरी लिपि को अपनाकर यह शुरुआत की जा सकती है। आज जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर, अंडमान-निकोबार और गोवा की अनेक ऐसी भाषाएं एवं बोलियां हैं, जो लिपि न होने के अभाव में अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैैं। इन क्रमश: विलुप्त हो रही भाषाओं में मौखिक साहित्य की अत्यंत समृद्ध परंपरा रही है। इसे न सिर्फ संरक्षित करने की आवश्यकता है, बल्कि अब तक अपरिचित रहे व्यापक समाज के बीच ले जाने की भी आवश्यकता है। तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम आदि जिन भारतीय भाषाओं की अपनी पृथक लिपि है, उनकी सह-लिपि के रूप में देवनागरी लिपि को अपनाने से अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक संकीर्णताओं का निदान हो सकता है।
भारत बहुभाषिक, बहुलिपिक देश है, लेकिन इस बहुलता के बावजूद भारतीयता की अंतर्धारा उसकी सबसे बड़ी विशिष्टता है। भारतीयता की इस अंतर्धारा को और अधिक पुष्ट करने में हिंदी की तरह ही देवनागरी लिपि की बड़ी भूमिका हो सकती है। तमाम विरोध और संकीर्ण राजनीति को पीछे छोड़ते हुए आज हिंदी देश की स्वाभाविक संपर्क भाषा बन गई है। वह राष्ट्रीय एकीकरण की भी संवाहिका है। देवनागरी लिपि को समस्त भारत की संपर्क लिपि बनाने के लिए देशवासियों को सक्रिय होना चाहिए। भाषा विशेष की विशिष्ट ध्वनियों को समायोजित करने के लिए देवनागरी लिपि में आंशिक संशोधन/परिवद्र्धन किया जा सकता है, ताकि अधिकाधिक भारतीय भाषाओं के साथ उसकी सहज निकटता और आत्मीयता स्थापित हो सके।
अरब जगत की अधिकांश भाषाओं की लिपि अरबी और यूरोप-अमेरिका की अनेक भाषाओं की लिपि रोमन है। इसलिए उनमें न सिर्फ बेहतर सामाजिक-सांस्कृतिक संवाद है, बल्कि व्यापार और पर्यटन भी खूब फल-फूल रहा है। भाषा के माध्यम से बाजार का विस्तार होता है और बाजार के द्वारा भाषा का प्रचार-प्रसार होता है। इसीलिए हिंदी का इतना विकास और विस्तार हो रहा है। अन्य भारतीय भाषाएं देवनागरी लिपि के माध्यम से हिंदी के साथ जुड़कर न सिर्फ सांस्कृतिक रूप से समृद्ध होंगी, बल्कि रोजगार, व्यापार और पर्यटन क्षेत्र में भी अपनी जगह बना सकेंगी। बड़े बाजार की भाषा होने से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भाषा की पहचान और पूछ बढ़ती है। वह अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को प्रभावित करते हुए विदेश-नीति निर्धारण में निर्णायक हस्तक्षेप कर सकती है। अंग्रेजी के आधिपत्य से निपटने के लिए भारतीय भाषाएं साझा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, समान शब्द भंडार और देवनागरी लिपि के आधार पर एक संयुक्त मोर्चे का निर्माण करना चाहिए। रोमन लिपि के भारतीय भाषाओं की लिपि बन बैठने से पहले ही हमें इस खतरे से निपटने की दिशा में सक्रिय पहल करनी चाहिए।