भ्रष्टाचार के रूपक
लेख में उठाया सवाल ‘भ्रष्टाचार को जनता कब गंभीरता से मुद्दा मानेगी’ में इतना ही मेरा मत है कि देश की साठ फीसद जनता को शायद इस रोग से कोई लेना देना नहीं है, क्योंकि वे किसी तरह दो जून के दाल-रोटी में बेहाल हैं।
Written by जनसत्ता; लेख में उठाया सवाल 'भ्रष्टाचार को जनता कब गंभीरता से मुद्दा मानेगी' में इतना ही मेरा मत है कि देश की साठ फीसद जनता को शायद इस रोग से कोई लेना देना नहीं है, क्योंकि वे किसी तरह दो जून के दाल-रोटी में बेहाल हैं।
आखिर वे इस मुद्दे में भिड़कर अपनी रोजी कमाने के समय को क्यों नष्ट करेंगे? सच तो यह है कि भ्रष्टाचार पर सर्वत्र हाहाकार है, लेकिन सब लाचार हैं, क्योंकि यह बीमारी असाध्य हो गई है जिसके आक्सीजन तुल्य औषधि का निर्माण भी बंद हो गया है। यह बात दीगर है कि हर कृत्य जब अपनी अंतिम सीमा रेखा लांघती है तो विवश मानस 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' की भूमिका में (श्रीलंका) आकर अपना अभिनय मात्र प्रस्तुत कर फिर से अपनी पूर्व स्थिति में लौट जाती है।
किसी के सर चकराने की राहत चंपू मालिश से भले मिल रही हो, लेकिन उस जेपी सह अण्णा के अनुयायियों के वचन भंग अपराध का क्या होगा, जिन्होंने मानवीय संवेदनाओं और भरोसे का गला घोंटा है? शायद लोकतंत्र अपनी गोधूली बेला होते हुए इस संत्रास से आगे की यात्रा सूर्यास्त तक इंतजार करे।
बीते शनिवार यानी 26 नवंबर को देश में संविधान दिवस मनाया गया। हमारे देश में सशक्त संविधान होने के बावजूद देश के न्यायालयों में लंबित पड़े हुए लाखों मुकदमे और न्याय में होने वाला लंबा विलंब लोगों को न्याय व्यवस्था के प्रति हताश किए हुए है। आखिर क्या वजह है कि लोग लंबी न्याय प्रक्रिया में उलझने के बजाय नुकसान उठा कर भी न्यायालय का दरवाजा खटखटाने नहीं जाते हैं।
जब आप एक वकील के दफ्तर में जाएंगे तो आप वहां रखी हुई सैकड़ों मोटी-मोटी कानून की पुस्तकें देखकर ही चकरा जाएंगे। आजादी के पचहत्तर वर्ष बाद भी सैकड़ों ऐसे कानून हैं, जिनकी समय के साथ उपयोगिता खत्म हो गई है। ऐसे हालात में न्याय मंत्रालय को विद्वान जजों और वकीलों की एक समिति बनाकर संविधान के लिए अब गैरजरूरी हो चुके कानूनों को हटाने के लिए मसौदा तैयार करना चाहिए।
इसके साथ ही सुदूर तहसीलों तक नए कानूनों की जानकारी तत्काल पहुंचाए जाने की व्यवस्था करना चाहिए। एक निर्धारित अवधि में मुकदमे का फैसला नहीं आने की स्थिति में वादी को न्यायालय फीस वापस किए जाने का प्रावधान किया जाना चाहिए। वकीलों की फीस भी निर्धारित की जानी चाहिए। जेल में लंबे समय से बंद गैर गंभीर मामलों में बंद विचाराधीन कैदियों को एक निश्चित अवधि तक फैसला नहीं आने पर जमानत पर छोड़ने का प्रावधान किया जाना चाहिए। एक आरोप और अक्सर उभरता रहता है कि न्यायालयों में वकीलों के रूप में कुछ लोग दलाली भी कर रहे हैं! ऐसे तत्त्वों को भी न्यायालय परिसर से बाहर किया जाना अति आवश्यक है!