पुराने कपड़ों का जमाना : चलन में हैं किराये के लहंगे-साड़ियां
तभी तो युवाओं में बहुत लोकप्रिय हो रहा है।
हाल ही में ब्रिटेन की एक लड़की के बारे में पढ़ा था कि वह नए कपड़े नहीं खरीदती। बाजार में कौड़ी के दाम जो पुराने कपड़े मिलते हैं, जिनकी हालत अच्छी होती है, उन्हें खरीदती है। उसका कहना है कि इस तरह से उसने लाखों रुपये बचा लिए हैं। एक जमाने में पुराने कपड़ों के लिए दिल्ली का जामा मस्जिद का इलाका बहुत मशहूर रहा है। इकहत्तर के युद्ध के बाद अमेरिका की तरफ से बांग्लादेश के नागरिकों के लिए पुराने कपड़े भेजे गए थे। उनमें से बहुत से कपड़े भारत में भी आ पहुंचे थे।
इन कपड़ों की गुणवत्ता बहुत अच्छी थी। इसलिए तमाम लोग उन कपड़ों को खरीदने लगे। जब इन कपड़ों के बारे में पूछा जाता था, तो मजाक में कहा जाता था, इम्पोर्टेड फ्रॉम अमेरिका वाया जामा मस्जिद। आज भी घर-घर में पुराने कपड़ों के बदले स्टील के बरतन और प्लास्टिक का सामान खरीदा जाता है। इसे रिसाइक्लिंग तथा 'आम के आम और गुठलियों के दाम' जैसी कहावतों से जोड़ा जाता है। वैसे भी बताया जाता है कि दुनिया में यदि कूड़ा कम करना हो, तो सबसे पहले कपड़ों का कूड़ा कम किया जाना चाहिए।
आपको याद होगा कि अपने परिवारों में चाची, ताई, दादी, नानी सब किसी उत्सव-त्योहार पर एक-दूसरे की साड़ियां पहनती थीं। ये साड़ियां वर्षों तक एक-दूसरे के काम आती थीं। एक कपड़े को बार-बार पहनना आज की तरह वार्डरोब माल फंक्शनिंग नहीं कहलाता था। यहां तक कि पड़ोस की महिलाएं भी कपड़े मांगकर ले जाती थीं। नब्बे के दशक के बाद देखा गया कि शादी के कपड़ों को खरीदने में युवा बहुत पैसे खर्च करने लगे। ऐसी चमक-दमक वाले कपड़े सिर्फ एक ही बार पहने जाते थे, क्योंकि मध्यवर्ग की नौकरीपेशा महिलाओं के रोजमर्रा के जीवन में ऐसे कपड़ों की कोई जगह नहीं बची थी।
चार साल पहले एक मित्र की बिटिया की शादी हुई थी। मित्र रिटायर हो चुके हैं। लड़की भी मामूली नौकरी करती थी। लेकिन जब शादी का लहंगा खरीदने की बात आई, तो लड़की ने डेढ़ लाख रुपये का लहंगा खरीदा। मित्र की पत्नी इस बात से काफी दुखी थीं कि जिस लहंगे को एक बार पहना जाएगा, उस पर इतने पैसे खर्च करने की क्या जरूरत। कपड़ों पर इतना पैसा खर्च करने की बात शायद बहुत लोगों को चुभ रही होगी, तभी किसी ने बताया कि दिल्ली और बड़े शहरों में इन दिनों ऐसी दुकानें खोली गई हैं, जिनमें बड़े-बड़े डिजाइनर्स के बनाए लहंगे और शादी में पहने जाने वाले अन्य कपड़े किराये पर मिलते हैं। युवाओं में ये दुकानें बहुत लोकप्रिय हो रही हैं।
अक्सर इन दिनों शादी के दिन जो कपड़े पहने जाते हैं, बाद में उन्हें शायद ही कभी पहना जाता है। अक्सर वे आलमारियों की शोभा बढ़ाते रहते हैं। इसीलिए किराये पर मिलने से फायदा यह है कि पहनो, किराया दो और छुट्टी। यह दुख भी नहीं कि जिन कपड़ों पर इतने पैसे खर्च किए थे, वे फिर कभी पहने ही नहीं गए।
पिछले दिनों द बेटर इंडिया नाम की एक साइट पर गुजरात के बारे में एक खबर पढ़ी। वडोदरा में आठ सहेलियों ने मिलकर एक साड़ी लाइब्रेरी खोली है। इसमें चार सौ से अधिक साड़ियां हैं। अपनी पसंद की पांच साड़ियां मामूली किराया देकर, पांच दिन के लिए ले जाई जा सकती हैं। इसकी संस्थापक हेमा चौहान को इसे खोलने का विचार अपनी घरेलू सहायिका को देखकर आया।
वह एक शादी में पहनने के लिए हेमा के कपड़े ले गई थी। तब उन्हें लगा कि ऐसी न जाने कितनी महिलाएं होंगी, जिनके पास किसी समारोह में पहनने के लिए कपड़े नहीं होते होंगे। महंगे होने के कारण वे उन्हें खरीद ही नहीं पाती होंगी। अब तक सौ महिलाएं इसका लाभ उठा चुकी हैं। इस दुकान को बहुत-सी स्त्रियां अपने कपड़े दान में भी दे रही हैं।
ऐसे कपड़े भी मिल रहे हैं, जिनके टैग भी अभी नहीं छूटे हैं। जूते और जेवर भी मिल रहे हैं। कई शहरों में नेकी की दीवार बनाई जाती है। जहां लोग वे चीजें रख जाते हैं, जिनका वे इस्तेमाल नहीं करते। इसका मुख्य उद्देश्य भी यही है कि ये चीजें किसी जरूरतमंद के काम आ जाएं। किराये पर साड़ियां मिलना या लहंगे मिलना भी किसी नेकी की दीवार-सा ही अच्छा काम है। तभी तो युवाओं में बहुत लोकप्रिय हो रहा है।