अफगानिस्तान: आज भी पुकार लगाता है "काबुलीवाला" का वो रहमत पठान- 'ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन तुझपे दिल कुर्बान'

हम कामकाज और नौकरी के सिलसिले में अपने घरों को छोड़ देते हैं। बेहतर जीवन के लिए नई जगह को अपना नया घर बनाते हैं

Update: 2021-08-20 14:36 GMT

आसिफ़ इक़बाल। 


ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझपे दिल कुर्बान,  तू ही मेरी आरज़ू, तू ही मेरी आबरू, तू ही मेरी जान


हम कामकाज और नौकरी के सिलसिले में अपने घरों को छोड़ देते हैं। बेहतर जीवन के लिए नई जगह को अपना नया घर बनाते हैं। जहां सबकुछ नया होता है। नए लोग, नई जमीन, नया माहौल, नई भाषा और नई जिंदगी। जीवन को बेहतर बनाने के लिए हम क्या-क्या नहीं करते। इसे हम मजबूरी का नाम दे सकते हैं। लेकिन क्या हो अगर आपको रातोंरात घर से भेड़-बकरियों की तरह हांक दिया जाए। क्या हो अगर आपको मुल्क बदर होना पड़े। अपना घर, अपने खेत, अपने लोगों को छोड़ने पर मजबूर कर दिया जाए या इतना खौफ पैदा कर दिया जाए कि आप आजादी का मतलब ही भूल जाएं।
अफगानिस्तान से आज कुछ ऐसी तस्वीरें आ रही हैं। तालिबान ने देश पर कब्जे के साथ-साथ लोगों की आजादी, अधिकारों और विचारों को भी बंदूक की नोंक पर रख दिया है। अब तालिबान तय करेगा कि देश का नागरिक कैसे जिएगा और कैसे मरेगा।

जिस नए अफगानिस्तान में भविष्य की रोशनी दस्तक दे रही थी अब वहां दहशत दाखिल हो चुकी है। निर्दोष अफगानियों का पलायन शुरू हो चुका है। वे किसी भी कीमत पर अपने प्यारे वतन को अलविदा कहने पर मजबूर हैं। आज अफगानियों का जो दर्द है उसे 60 साल पहले फिल्म काबुलीवाला के किरदार रहमत पठान ने बखूबी महसूस किया था।

'ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन तुझपे दिल क़ुरबान ' गीत सुनकर फिल्म काबुलीवाला का रहमत पठान याद आता है, जो दूसरे मुल्क में रहने को मजबूर था और अपने देश का प्यार उसे खींचता था।
आज ये गाना हर उस अफगानी के अहसास को बयां कर रहा है जिसे अपना वतन छोड़ने पर मजबूर किया जा रहा है। इस गाने की एक-एक कड़ी वतन से दूर अफगानियों पर सटीक बैठती है। किसे पता था कि भविष्य में ये गाना ज्यादातर अफगानियों की तकदीर बन जाएगा।

आज जिन मांओं से उनके बच्चे बिछड़ गए हैं। बच्चे जान बचाते लोगों की भीड़ में कहीं रौंद दिए गए हैं। उन बच्चों को इस गीत की एक पंक्ति-मां का दिल बन के कभी सीने से लग जाता है तू ...की तरह अपनी मां के सीने से लगने का मौका मिलेगा भी या नहीं। अपनी ही धरती पर नौजवानों को या तो सिर झुकाना होगा या सिर कटाना होगा।

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट की मानें तो 50 लाख से ज़्यादा लोग, देश के अंदर ही विस्थापित हो गए हैं।
तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जा करने से पहले काफी संख्या में अफगान नागरिकों ने विदेशों से अपने वतन लौटना शुरू कर दिया था। साल 2021 के पहले सात महीनों के दौरान, लगभग 6 लाख 80 हजार विस्थापित अफगान नागरिकों को स्वदेश लौटकर अपने घरों के बंद दरवाजों को मुद्दतों बाद खोलने का मौका मिला था, लेकिन उन्हें क्या पता था कि उनके इन आशियानों पर फिर ताला लगने वाला है।
अपने ही देश में बेगाने होने का दर्द क्या होता है इसे अफगानियों से बेहतर कौन समझ सकता है। जिनके पास पैसा है, साधन हैं वो सुरक्षित स्थानों पर पहुंच रहे हैं लेकिन कई परिवार ऐसे भी हैं जिनके पास यातायात साधन उपलब्ध नहीं है, या फिर उनके पास इसका खर्चा उठाने के लिए पैसे नहीं हैं। ऐसे परिवार पैदल सैकड़ों किमी का सफर तय कर रहे हैं। जो देश नहीं छोड़ सकते उनके लिए भी परेशानियां कम नहीं हैं। सभी घरों में बंद हैं। कोविड-19 महामारी की तीसरी लहर और भीषण सूखे ने अपना कहर बरपाया हुआ है।

देश की लगभग आधी आबादी को तत्काल आपात सहायता की जरूरत है। लोग अपनों से बिछड़ गए हैं और परिवार के सदस्यों के साथ फिर से मिलने की उम्मीद भी है। जिस धरती पर जन्म लिया उसी पर दम तोड़ने की तमन्ना हर इंसान की होती है लेकिन जो अफगानी देश छोड़कर जा रहे हैं उन्हें मंजिल का कुछ पता नहीं।

वतन वापसी होगी भी या नहीं ये भी नहीं जानते। सवाल ये है कि इनको सुरक्षित स्थान तो मिल जाएगा लेकिन भाषा, संस्कृति, देश, स्वाद और अपने लोग कहां मिलेंगे। किसी भी व्यक्ति के लिए उसका देश सबसे सुरक्षित जगह होता है लेकिन विडंबना ये है कि अफगानी अफगानिस्तान में ही असुरक्षित महसूस होकर दूसरे देशों में शरणार्थी बनकर रहने पर मजबूर हैं और याद कर रहे हैं....
छोड़ कर तेरी ज़मीं को दूर आ पहुंचे हैं हम
फिर भी है ये ही तमन्ना तेरे ज़र्रों की कसम
हम जहां पैदा हुए उस जगह ही निकले दम
तुझपे दिल कुर्बान
तू ही मेरी आरजू, तू ही मेरी आबरू, तू ही मेरी जान
ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन तुझपे दिल कुर्बान...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए  जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।  
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