Afghanistan Crisis: मुसलमानों को तालिबान प्यारा क्यों है? इस्लामिक संगठनों ने क्यों साध ली है चुप्पी?

इस्लामिक संगठनों ने क्यों साध ली है चुप्पी?

Update: 2021-08-24 14:27 GMT

धर्मेंद्र द्विवेदी। 

बात बहुत पुरानी नहीं है. मई 2021 की है…जब फिलीस्तीन और इज़रायल के बीच अल-अक्सा मस्जिद को लेकर विवाद चरम पर था. दर्जनों फिलीस्तीनियों की मौत हुई थी. पूरी दुनिया के मुसलमान उस वक्त इज़रायल के विरोध में मोर्चा खोलकर खड़े हो गए थे. जिस भी देश में मुसलमान रहते हैं…हर जगह इज़रायल के खिलाफ जोरदार विरोध प्रदर्शन हुआ. यहूदियों को गालियां दी गईं. सेव फिलिस्तीन ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा था. यहां तक कि अपने देश में भी इज़रायल के खिलाफ मुसलमान जिस हद तक विरोध प्रदर्शन कर सकते थे किया…लेकिन अब वही मुसलमान अफगानिस्तान पर खामोश हैं.


जिस तरह का जुल्म तालिबान अफगानिस्तान में कर रहा है, उसे देखकर पूरी दुनिया के लोग दहल उठे हैं. किसी को गोली मार देना, लड़कियों को घर से उठा लेना, किसी का हाथ काट देना सबकुछ खुलेआम हो रहा है. तालिबानी जुल्म की तस्वीरों से सोशल मीडिया अटा पड़ा है लेकिन मजाल है कि किसी मुस्लिम संगठन ने तालिबान के खिलाफ विरोध जुबान खोली हो, प्रदर्शन किया हो, किसी बड़ी मुस्लिम शख्सियत ने कहा हो कि हम तालिबान का विरोध करते हैं.

तालिबान का विरोध तो दूर संभल से समाजवादी पार्टी के सांसद शफीकुर्ररमान बर्क और उनके बेटे ने तो तालिबान को जीत की बधाई तक दी थी. मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य सज्जाद नोमानी ने भी तालिबानी दहशतगर्दों की शान में सलाम भेजा था. शायर मुनव्वर राना जैसे लोग तालिबान की हिमायत कर ही चुके हैं. ये चंद नाम हैं जिन्होंने पब्लिक फोरम पर आकर तालिबान के लिए हमदर्दी जाहिर की है.

हिंदुस्तान में रहने वाले न जाने ऐसे कितने मुस्लिम होंगे जो तालिबान को अपना आदर्श मानने लगे होंगे. अफगानिस्तान जीत के बाद इस बात का खतरा बढ़ गया कि अब भारतीय उप-महाद्वीप के मुस्लिम युवा जाकर तालिबान को जॉइन करेंगे. ठीक उसी तरह जैसे कभी ISIS में भर्ती होने के लिए पूरी दुनिया से लड़के लड़कियां भागकर सीरिया जाया करते थे.

विरोध का तरीका इतना सेलेक्टिव क्यों हैं?

सवाल ये है कि तालिबान के लिए हमदर्दी की वजह क्या है. इस सोच की जड़ कहां है? विरोध का तरीका इतना सेलेक्टिव क्यों हैं? जब इज़रायल से झड़प में मुस्लिमों की मौत होती है तो विरोध का सुर तेज़ हो जाता है. जब कश्मीर में मुस्लिम आतंकी मारता है तो पाकिस्तान और कुछ दूसरे देश छाती पीटकर विलाप करते हैं. सीरिया, इराक या अफगानिस्तान में जब अमेरिका एक्शन लेता है तो मुस्लिमों पर जुल्म का प्रोपोगेंडा पूरी दुनिया में चल पड़ता है.

हर सवाल का जवाब है सिर्फ मज़हब का ज़हर है. अगर मारने वाला, जुल्म करने वाला मुसलमान है तो मुसलमानों को उसमें कोई बुराई नज़र नहीं आती. क्योंकि आताताई अपने गुनाहों को शरीयत के मुलम्मे में लपेटकर पेश करता है. खुद को इस्लाम का सबसे बड़ा झंडाबरदार दिखाता है..और हैरत होती है कि दुनिया भर के मुसलमान भी उसके नजरिए से इत्तेफाक रखते हैं.

मुस्लिमों देशों का संगठन OIC भी खामोश

हैरानी होती है कि मुस्लिमों देशों का संगठन OIC भी कमोबेश खामोश है. न तो अफगानिस्तान में मदद के लिए आगे आ रहा है. न तो अफगानों को शरण देने के लिए दरवाजे खोले हैं. इसके उलट पश्चिमी देश दिल खोलकर अफगानियों की मदद कर रहे हैं. आपको बता दें कि ये वही OIC है, जो अल-अक्सा विवाद के दौरान खुलकर इज़रायल का विरोध कर रहा था..

हाल के कुछ सालों में पूरी दुनिया में मुस्लिमानों को लेकर जो नया नज़रिया विकसित है. उसकी वजह यही सेलेक्टिव अप्रोच है, क्योंकि अफगानिस्तान में बेकसूरों को मारने वाले मुसलमान हैं इसलिए दुनिया भर के मुसलमानों को इसमें बुराई नज़र नहीं आती. शरीयत का हवाला देकर तालिबानी महिलाओं को जानवरों की तरह गुलाम बनाकर रखना चाहते हैं लेकिन सबकुछ देखते और सुनते हुए मुस्लिम जगत आंख-कान बंद करके बैठा है. क्योंकि ये मामला मज़हब का है. मारने वाला मुसलमान तो सब माफ, अगर कोई और तो विलाप.
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