दाखिले का दंगल
यह हर साल का सिलसिला बन चुका है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले को लेकर मारामारी मच जाती है।
पिछले साल एक कॉलेज ने अपनी कट-आफ सौ प्रतिशत रखी थी। इस साल कुछ और कॉलेजों ने सौ प्रतिशत जारी की है। यह सही है कि दो-तीन सालों से सीबीएसई परीक्षा में कुछ विद्यार्थियों के सौ प्रतिशत अंक आ रहे हैं, पर विडंबना है कि इस आधार पर दाखिले का पैमाना ही सौ फीसद रख दिया जाए। हालांकि सीटें न भरने पर अंक प्रतिशत घटाया जाता है, पर इससे यह तो जाहिर है कि कम अंक पाने वाले विद्यार्थियों के लिए उन कॉलेजों में जगह नहीं है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले के वक्त मारामारी की बड़ी वजह कॉलेजों की संख्या बहुत कम होना है। हर साल करीब ढाई लाख बच्चे दिल्ली में सीबीएसई परीक्षा पास करते हैं, मगर इससे आधे के लिए ही कॉलेजों में सीटें हैं। फिर दूसरे राज्यों के बच्चे भी बारहवीं के बाद दिल्ली आकर पढ़ना चाहते हैं और उनकी प्राथमिकता में दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज होते हैं।
इस तरह दाखिले के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ जाती है। पिछले साल दिल्ली सरकार ने घोषणा कर दी कि जो कॉलेज दिल्ली सरकार के अधीन आते हैं, उनमें दिल्ली के बच्चों को प्राथमिकता दी जाएगी, बाहरी बच्चों के लिए कम सीटें रखी जाएंगी। तब मुख्यमंत्री ने नए कॉलेज खोलने का इरादा भी जताया था। मगर अब वे कह रहे हैं कि दिल्ली सरकार के नए कॉलेज खोलने के रास्ते में दिल्ली विश्वविद्यालय के नियम आड़े आ रहे हैं और उन्हें इसकी इजाजत नहीं मिल पा रही है।
उन्होंने केंद्रीय शिक्षामंत्री से भी नए कॉलेज खोलने का आग्रह किया है। नए कॉलेज कब खुल पाएंगे, कितने खुल पाएंगे, कहना मुश्किल है, पर सच्चाई यही है कि केवल दिल्ली नहीं, देश के बहुत सारे बच्चे हर साल किसी नियमित पाठ्यक्रम में दाखिला न मिल पाने के कारण या तो मुक्त विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने का प्रयास करते हैं या फिर उच्च शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के मुक्त पाठ्यक्रम में भी कुछ सालों से दाखिले के लिए कट-आॅफ अमूमन सत्तर फीसद से ऊपर ही देखा जाता है। ऐसे में इससे कम अंक पाने वाले विद्यार्थियों की निराशा का अंदाजा लगाया जा सकता है।
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नए कॉलेज और विश्वविद्यालय खुलने की दर बहुत निराशाजनक है। पिछले तीस सालों में आबादी के अनुपात में बहुत कम संस्थान खुले हैं। सरकारें निजी संस्थानों को इस दिशा में प्रोत्साहित करती रही हैं। जो आर्थिक रूप से सक्षम परिवारों के बच्चे हैं, वे तो निजी संस्थानों में चले जाते हैं, पर गरीब परिवारों के और कम अंक पाने वाले विद्यार्थी किसी विश्वविद्यालय के मुक्त पाठ्यक्रम में दाखिला लेने को मजबूर होते हैं, जिनकी वकत महज कागज पर डिग्री से अधिक कुछ नहीं होती। बारहवीं के बाद कौशल विकास संबंधी शिक्षा पर जोर तो दिया जाता है, पर उसके लिए पर्याप्त संस्थान भी खुलने चाहिए, इसकी चिंता सरकारें कब करेंगी!