प्रवर्तन की पहुंच

धनशोधन मामलों में प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी की तेज होती गतिविधियों से भ्रष्टाचार में लिप्त, खासकर विपक्षी दलों के नेता खासे आहत थे। इसे लेकर उन्होंने अलग-अलग अदालतों में चुनौती दे रखी थी।

Update: 2022-07-29 04:46 GMT

Written by जनसत्ता; धनशोधन मामलों में प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी की तेज होती गतिविधियों से भ्रष्टाचार में लिप्त, खासकर विपक्षी दलों के नेता खासे आहत थे। इसे लेकर उन्होंने अलग-अलग अदालतों में चुनौती दे रखी थी। सर्वोच्च न्यायालय उन सभी दो सौ बयालीस याचिकाओं पर एक जगह सुनवाई करते हुए आदेश दिया कि प्रवर्तन निदेशालय को गिरफ्तारी, कुर्की और जब्ती जैसे दिए गए अधिकार वाजिब हैं। दरअसल, बीस साल पहले बने कानून में प्रवर्तन निदेशालय को गिरफ्तारी, कुर्की, जब्ती आदि का अधिकार तब तक हासिल नहीं था, जब तक वह इसका औचित्य साबित न कर दे।

वर्तमान केंद्र सरकार ने उस कानून को बदल कर और कड़ा बना दिया, जिसके तहत उसे अदालत में अपना पक्ष साबित किए बगैर भी गिरफ्तारी और संबंधित व्यक्ति की संपत्ति जब्त करने का अधिकार दे दिया गया था। इसी संशोधन को अदालतों में चुनौती दी गई थी। अब जब सर्वोच्च न्यायालय ने प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारों को संवैधानिक करार दे दिया है, तो इसे लेकर न सिर्फ विवाद की गुंजाइश खत्म हो गई है, बल्कि ईडी के लिए धनशोधन से जुड़े मामलों की जांच, गिरफ्तारी आदि को लेकर मनोबल बढ़ा है। दरअसल, विवाद कानून में संशोधन को लेकर उतना नहीं है, जितना सरकार के इशारे पर ईडी के छापों को लेकर है।

प्रवर्तन निदेशालय ने 2011 के बाद से अब तक सत्रह सौ छापे मारे, जिनमें से करीब पंद्रह सौ सत्तर की गहन जांच की गई, मगर उनमें से केवल नौ को दोषी पाया गया। इससे जाहिर है कि इतनी बड़ी संख्या में बाकी लोगों को नाहक परेशानी और बदनामी झेलनी पड़ी। इनमें से कई लोगों की संपत्ति भी जब्त की गई। फिर पिछले आठ सालों में यह भी स्पष्ट देखा गया कि विपक्षी नेताओं पर ही ईडी का शिकंजा कसा, जबकि जो लोग दूसरे दलों से सत्तापक्ष में शामिल हो गए, उनके खिलाफ आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई, हालांकि उनके धनशोधन संबंधी अपराध जगजाहिर हैं।

इसलिए विपक्षी दलों का एतराज स्वाभाविक है। मगर धनशोधन का मामला देश की सुरक्षा से भी जुड़ा है। इसके जरिए बहुत सारे आतंकी संगठनों और नशीले पदार्थों के कारोबार को भी वित्तीय मदद पहुंचाई जाती है। अदालत ने माना है कि यह किसी आतंकवाद से कम नहीं है। इससे केवल देश और समाज को वित्तीय नुकसान नहीं पहुंचता, बल्कि देश की संप्रभुता और अखंडता को भी खतरा पैदा होता है। इसलिए इस कानून को दी गई चुनौती पर स्वाभाविक ही अदालत ने विपरीत फैसला देने से परहेज किया।

धनशोधन के मामले मुख्य रूप से राजनेताओं, नौकरशाहों और उद्योगपतियों से जुड़े हैं। अनेक अध्ययनों के आंकड़ों से जाहिर है कि ये लोग किस तरह अपना कालाधन छिपाने के लिए तरह-तरह की तरकीबें अपनाते हैं। मगर जिसकी सत्ता में पहुंच होती है, ईडी उसकी तरफ आंख उठा कर भी नहीं देखता। इसलिए अब तो उसकी कार्य प्रणाली को लेकर सरेआम अंगुलियां उठती रहती हैं। जहां भी किसी पर ईडी के छापे पड़ते हैं, संबंधित व्यक्ति सीधा सरकार पर आरोप लगाना शुरू कर देता है कि यह सब केंद्र के इशारे पर, परेशान करने की नीयत से किया जा रहा है।

इस तरह लोगों में भ्रष्टाचार को लेकर एक प्रकार की स्वीकृति का भाव पैदा होता गया है। अदालत की ईडी के अधिकारों की व्याख्या करने की अपनी सीमाएं हैं, पर सरकार अगर सचमुच धनशोधन जैसी गंभीर प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाहती है, तो उसे ईडी को मुक्त-हस्त करने की उदारता दिखानी चाहिए।


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