अनुपस्थित जनप्रतिनिधि
प्रधानमंत्री ने सदन में उपस्थिति के मसले पर भले भाजपा के सांसदों को सलाह दी है, लेकिन उनकी बातें सभी दलों से जुड़े जनप्रतिनिधियों के लिए अहम मानी जानी चाहिए। यह किसी से छिपा नहीं है
प्रधानमंत्री ने सदन में उपस्थिति के मसले पर भले भाजपा के सांसदों को सलाह दी है, लेकिन उनकी बातें सभी दलों से जुड़े जनप्रतिनिधियों के लिए अहम मानी जानी चाहिए। यह किसी से छिपा नहीं है कि लोकसभा या राज्यसभा में सदस्य के तौर पर चुने जाने के बाद बहुत सारे सदस्य संबंधित सदन में नियमित तौर पर उपस्थित होना बहुत जरूरी नहीं समझते। शायद ही कभी ऐसा होता हो जब सदन में सभी सांसदों की उपस्थिति सुनिश्चित होती हो। ऐसे मौके आम होते हैं, जब सदन में बहुत कम सदस्य मौजूद होते हैं और इस बच वहां कई जरूरी काम निपटाए जाते हैं।
जरूरत के संदर्भ में छुट्टी पर होने या अपने क्षेत्र में कोई अनिवार्य काम निपटाने की वजह से अनुपस्थित होने के पीछे एक तर्क है, लेकिन बिना किसी महत्त्वपूर्ण वजह के गैरहाजिर होना अगर एक प्रवृत्ति बनती है तो यह न सिर्फ संसद के कामकाज में सभी पक्षों की भागीदारी को कमजोर करेगा, बल्कि इसे जनता के नुमाइंदों के अपनी जिम्मेदारी से बचने के तौर पर भी देखा जा सकता है। मुश्किल से हासिल की गई सदस्यता के बाद सदन की कार्यवाही में शामिल नहीं होने का खमियाजा आखिरकार जनता को उठाना पड़ता है।
प्रधानमंत्री ने भाजपा सांसदों के बहाने एक तरह से सदन से बेवजह अनुपस्थित रहने की इसी प्रवृत्ति पर टिप्पणी की है। भाजपा संसदीय दल की बैठक में उन्होंने सांसदों की गैरहाजिरी को जिस तरह गंभीरता से लिया, उसकी अपनी अहमियत है। इसके लिए उन्होंने साफ लहजे में हिदायत दी कि वे खुद में बदलाव लाएं, नहीं तो बदलाव वैसे ही हो जाता है। प्रधानमंत्री की इस बात में जरूरी संदेश छिपे हो सकते हैं, मगर इतना साफ है कि अगर सांसद अपनी जिम्मेदारी के प्रति गंभीर नहीं होते हैं तो लोकतंत्र में जनता ऐसे नेताओं का भविष्य तय करती है।
सवाल है कि लोकसभा या राज्यसभा के लिए चुने जाने के बाद सांसदों को यह अलग से बताए जाने की जरूरत क्यों होनी चाहिए कि सदन में मौजूदगी उनका दायित्व है! इस जिम्मेदारी को उन्हें खुद क्यों नहीं महसूस करना चाहिए? इसलिए प्रधानमंत्री की इस टिप्पणी का संदर्भ भी समझा जा सकता है कि बच्चों को बार-बार टोका जाता है तो उन्हें भी अच्छा नहीं लगता है। जाहिर है, यह सांसदों के लिए थोड़ी कड़वी घुट्टी है, मगर उनकी कमियों की ओर ध्यान दिलाने की कोशिश भी है।
दरअसल, वह महत्त्वपूर्ण विधेयकों के सूचीबद्ध होने का मामला हो या अन्य जरूरी समकालीन मुद्दों पर विचार-विमर्श या बहस का, अनेक मौकों पर यह देखा जाता है कि बहुत कम सांसदों की उपस्थिति में सदन की कार्यवाही चलती रहती है। ऐसे में किसी भी मुद्दे पर अलग-अलग पक्षों के साथ विचार-विमर्श नहीं हो पाता है। जबकि हमारे देश की राजनीतिक-सामाजिक और भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर देखें तो यह जरूरी है कि संसद की कार्यवाही और वहां तय होने वाले नियम-कायदों, बनने वाले कानूनों में जरूरी विविधता की झलक मौजूद रहनी चाहिए।
अगर कोई विधेयक बिना बहस के पारित होता है तो संभव है कि भविष्य में उसके एकपक्षीय होने या संबंधित समुदाय या वर्ग का पक्ष मौजूद नहीं होने की शिकायत उभरे। इसके अलावा, सदन के संचालित होने का जो दैनिक खर्च आता है, उसका बोझ आखिरकार जनता को उठाना पड़ता है। फिर जिस केंद्र से देश को चलाने के लिए नीतिगत फैसले होते हों, उसमें जनप्रतिनिधियों की भागीदारी यों भी एक जरूरी दायित्व है। सदन का काम मुख्य रूप से जनप्रतिनिधियों के जरिए ही पूरा होता है, इसलिए इसकी अहमियत भी समझी जानी चाहिए।