सांस्कृतिक राजनीति में एक नया मोड़: भाजपा अपनी राजनीति के सांस्कृतिक भूगोल का कर रही विस्तार
आगामी विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा अपनी राजनीति के सांस्कृतिक भूगोल का लगातार विस्तार करती जा रही है।
तिलकराज ।बद्री नारायण। आगामी विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा अपनी राजनीति के सांस्कृतिक भूगोल का लगातार विस्तार करती जा रही है। इसमें नए प्रतीक और नए व्यक्तित्व जुड़ते जा रहे हैं। सांस्कृतिक राजनीति की रणनीति में इस बार एक नया मोड़ दिखाई दे रहा है। यह मोड़ है पौराणिक और पारंपरिक प्रतीकों के साथ मध्यकालीन हंहिंउू राजाओं एवं औपनिवेशिक दौर में आजादी की लड़ाई के प्रतीक नायकों को खोज कर उन्हें सम्मान देना। वस्तुत: नायकों की खोज, उन्हें सम्मान देने की प्रक्रिया में एक गर्व का भाव सृजित होता है, जो सामाजिक समूहों को जोड़ने एवं उनसे जुड़ने के लिए एक आधार तत्व का काम करता है। यह गर्व भाव राष्ट्रीय एवं जातीय स्वाभिमान, दोनों ही रूपों में सक्रिय रहते हुए एक तरफ सामाजिक समुदायों में सामाजिक आत्मविश्वास पैदा करता है, दूसरी तरफ जो राजनीतिक दल जिन सामाजिक समूहों के नायकों को सम्मान देता है, उनकी तरफ वे समूह राजनीतिक रूप से आकर्षित भी होते हैं। वास्तव में राजनीति स्मृतियों एवं सांस्कृतिक प्रतीकों को मात्र खोजती ही नहीं, अपितु उन्हें अपने ढंग से रचती-विरचती भी है। वह स्मृतियों के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक संदर्भ निर्मित करती है। इधर कुछ सालों में भाजपा ने राजा सुहेलदेव, सम्राट मिहिर भोज एवं राजा महेंद्र प्रताप सिंह जैसे अनेक राजाओं के नायकत्व के स्मरण की योजना बनाई है।
सुहेलदेव बहराइच के राजा थे। उनका राज्य काफी विस्तारित था। उन्होंने सैयद सलार गाजी (जिन्हें गाजी मियां के नाम से भी जाना जाता है) को परास्त किया था। भाजपा ने सुहेलदेव के इर्दगिर्द कई काम किए हैं। अमित शाह ने सुहेलदेव एक्सप्रेस को हरी झंडी दिखाकर उसकी शुरुआत की थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बहराइच में सुहेलदेव की भव्य प्रतिमा का बीते दिनों अनावरण किया। चितौरा नामक ग्राम में बने उनके मंदिर का पुनर्निर्माण कराकर वहां पार्क बनाया और पर्यटकों के लिए कई आकर्षक सुविधाएं विकसित की गईं।
कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राजा महेंद्र प्रताप सिंह की स्मृति में अलीगढ़ में एक विश्वविद्यालय का उद्घाटन किया। हाथरस के राजा महेंद्र प्रताप सिंह जाट राज-परिवार से जुड़े थे। आजादी की लड़ाई में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। हाल में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से सटे दादरी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सम्राट मिहिर भोज की आदमकद प्रतिमा का अनावरण किया। सम्राट मिहिर भोज नौवीं शताब्दी के प्रख्यात राजा थे, जिन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार उज्जैन से लेकर कन्नौज तक किया था। वह भगवान विष्णु के अनन्य उपासक थे।
राजा सुहेलदेव को उत्तर प्रदेश में पासी एवं राजभर, दोनों अपना नायक मानते है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रभावी जाति जाट राजा महेंद्र प्रताप सिंह को अपना नायक मानती है।
सम्राट मिहिर भोज के नायकत्व पर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान तथा अन्य भागों के गुर्जर एवं राजपूत दोनों ही दावा करते हैं। इस प्रकार ऐसे नायकों की स्मृतियां भाजपा को इन सामाजिक समूहों में अपने आधार को मजबूत करने में मदद कर सकती हैं। भाजपा जाटों को, जिनका एक तबका कृषि कानून विरोधी मुहिम के प्रभाव में है, की अस्मिता को सम्मान देकर उनमें अपने आधार को दरकने से रोकने के लिए प्रयासरत है। ऐसे प्रयासों से पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान से लेकर हरियाणा में फैले जाटों की अस्मिता गौरवान्वित होती है। महान नायकों को सम्मान देने का यह अभियान कभी राष्ट्रीय स्वाभिमान तो कभी जातीय गरिमा से जुड़ जाता है। कभी-कभी यह प्रक्रिया दोनों ही अस्मिताओं को एक साथ संतुष्ट करती है।
स्मृतियां जनगोलबंदी का शक्तिशाली स्रोत हैं। स्मृतियों से अस्मिताएं रची जाती हैं। लोगों को जगाया जाता है। स्मृतियां प्रतीक एवं नायकों के माध्यम से समाज में प्रवाहित होती रहती हैं। जरूरत होती है उन्हें छानकर, एकत्रित कर एक प्रभावी वृतांत में बदलने की। मूर्मियां प्रतीकों का विजुअल रूप खड़ा करती हैं, जो स्मृतियों के वृतांतों को दीर्घकालीन जीवन देती हैं।
जनतंत्र के स्रोत मात्र भौतिक एवं विकास के अवसर के रूप में ही मौजूद नहीं होते। वे स्मृति एवं आइकान के तौर पर अपनी हिस्सेदारी की मांग के रूप में भी सामने आते हैं। चूंकि इतिहास एवं समाज निर्माण में अपनी विशिष्ट भूमिका की खोज कर अनेक सामाजिक समूह मौजूदा दौर में भी अपनी विशिष्टता को दर्ज कराते हैं, अत: जनतांत्रिक महत्व प्राप्त करने की लड़ाई में सामाजिक समूह विकास के अवसरों में अपनी हिस्सेदारी के साथ-साथ इतिहास में अपनी जगह के दावे भी प्रस्तुत करते हैं। चूंकि भारतीय समाज अनेक जातियों एवं उपजातियों का समूह है इसलिए अक्सर उनके बीच इन अवसरों की प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्धी भागीदारी भी होती दिखती है।
इस सिलसिले में प्रसिद्ध इतिहासकार एरिक हाब्सबाम ने ठीक ही कहा है कि स्मृतियों से कई बार विवाद एवं विभेद भी पैदा होता है। सुहेलदेव के संबंध में इंटरनेट मीडिया पर पासी एवं राजभर जाति में टकराव की आंच कई बार मुझ तक भी चली आती है, क्योंकि मैंने ऐसे व्यक्तित्वों पर शोध कार्य किया है। दादरी में सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा अनावरण को लेकर गुर्जर एवं राजपूत समुदाय में हुआ विवाद इसकी प्रत्यक्ष मिसाल है। ग्वालियर में मिहिर भोज की मूर्मि का मसला उनकी जातीय पहचान को लेकर विवाद का रूप धारण कर मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में पहुंच गया है। हाईकोर्ट ने समाधान के लिए विषय विशेषज्ञों, दोनों समुदायों के प्रतिनिधियों एवं प्रशासन के प्रतिनिधियों की एक समिति भी बनाई है।
भारतीय समाज एवं जनतांत्रिक राजनीति में घट रही ये घटनाएं दो बातों की तरफ इशारा करती हैं। एक तो स्मृतियां जहां जोड़ती हैं, वहीं कई बार विवाद का सबब भी बन जाती हैं। अत: इनके साथ वृतांत्मक रिश्ते विकसित करने के दौरान सावधानी बरतने जरूरत होती है। यहां ऐसे वृतांत रचने की जरूरत होती है जिससे लघुअस्मिताएं अंतत: एक वृहत्त समाहारी अस्मिता में बदल जाएं। दूसरे, जैसे जातीय जनगणना की मांग होती है, समाज के महानायकों एवं सांस्कृतिक नायकों की गणना वैसे नहीं की जानी चाहिए। उन्हें एक समय बाद हमें अपने जातीय ढांचे से मुक्त कर संपूर्ण समाज का हो जाने की छूट देनी चाहिए। इससे ही सांस्कृतिक राजनीति सशक्त होगी।