तमाम पुरातात्विक अवशेषों और प्रमाणों के बावजूद राम मंदिर होने के प्रमाण मांगे जाते रहे
रामनवमी के पावन अवसर पर यह प्रश्न उचित ही होगा कि आखिर किस षड्यंत्र के अंतर्गत तमाम पुरातात्विक अवशेषों और प्रमाणों के बावजूद उनके होने के प्रमाण मांगे जाते रहे? आखिर किस षड्यंत्र के अंतर्गत उनकी स्मृतियों को उनके जन्मस्थान से मिटाने-हटाने के असंख्य प्रयत्न किए जाते रहे? क्यों तमाम दलों एवं बुद्धिजीवियों को केवल राम-मंदिर से ही नहीं, बल्कि राम-नाम के जयघोष से, चरित-चर्चा-कथा से, यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नौ नवंबर, 2019 को उसके पक्ष में सुनाए गए ऐतिहासिक एवं बहुप्रतीक्षित फैसले से भी आपत्ति है? क्यों उन्हें एक आक्रांता की स्मृति में खड़े गुलामी के प्रतीक से इतना मोह है? मजहब बदलने से पुरखे नहीं बदलते, न संस्कृति ही बदलती है। राम मंदिर पर आए फैसले का विभिन्न मतावलंबियों द्वारा मुक्त कंठ से किया गया स्वागत भी यही सिद्ध करता है। जिन्होंने दशकों तक जातिवादी-सांप्रदायिक राजनीति एवं खंडित अस्मिताओं को उभारकर राजनीतिक रोटियां सेंकीं, केवल उन्हें ही भारत की सामूहिक एवं सांस्कृतिक चेतना एवं अस्मिता के प्रतीक पुरुष श्रीराम और राम मंदिर से परेशानी रही, क्योंकि श्रद्धा, आस्था और विश्वास की इस भावभूमि पर उनके द्वारा प्रयासपूर्वक रोपी गई विभाजनकारी विष-बेल के फलने-फूलने के आसार घट जाते।
रामनवमी: अस्तित्व को लेकर शंका के बीज वर्तमान पीढ़ी के हृदय में किसने और क्यों बोए
रामनवमी के इस अवसर पर प्रश्न तो यह भी उचित होगा कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी जिस एक चरित्र को हम अपनी सामूहिक एवं गौरवशाली थाती के रूप में सहेजते-संभालते आए, आखिर किन षड्यंत्रों के अंतर्गत उसे काल्पनिक बताया जाता रहा? उसके अस्तित्व को लेकर शंका के बीज वर्तमान पीढ़ी के हृदय में किसने और क्यों बोए? जो एक चरित्र करोड़ों लोगों के जीवन का आधार रहा हो, जिसमें करोड़ों लोगों की सांसें बसी हों, जिससे कोटि-कोटि जन प्रेरणा पाते हों, जिसने हर काल और हर युग के लोगों को संघर्ष एवं सहनशीलता, धैर्य एवं संयम, विवेक एवं अनुशासन की प्रेरणा दी हो, जिसके चरित्र की शीतल छाया में कोटि-कोटि जनों के ताप-शाप मिट जाते हों, जिसका धर्म-अधर्म का सम्यक बोध कराता हो, जो मानव-मात्र को मर्यादा और लोक को ऊंचे आदर्शों के सूत्रों में बांधता-पिरोता हो, जो हर युग और काल के मन-मानस को नए सिरे से मथता हो और विद्वान मनीषियों के हृदय में बारंबार नवीन एवं मौलिक रूप में आकार ग्रहण करता हो, ऐसे परम तेजस्वी, ओजस्वी, पराक्रमी, मानवीय श्रीराम को काल्पनिक बताना राष्ट्र की चेतना, प्रकृति और संस्कृति का उपहास उड़ाना नहीं तो और क्या है? अच्छा तो यह होता कि आजाद भारत में भी श्रीराम मंदिर के भव्य निर्माण में विलंब करने या जानबूझकर अड़ंगा डालने वालों को कठघरे में खड़ा कर उनकी नीति और नीयत पर सवाल पूछे जाते।
आस्था एवं विश्वास की विजय, श्रीराम के भव्य मंदिर की तैयारी जोरों पर
बहरहाल समय और समाज इन प्रश्नों को छोड़कर आगे बढ़ चले हैं। लंबे संघर्ष के परिणामस्वरूप अंतत: आस्था एवं विश्वास की विजय होनी थी, सो हुई। श्रीराम के भव्य मंदिर की तैयारी जोरों पर है। 2024 तक इसके बनकर तैयार हो जाने की संभावना है। श्रीराम के मंदिर को लेकर जनमानस में जो आस्था एवं उत्साह है, उसकी एक झलक देश ने श्रीराम जन्मभूमि निधि समर्पण अभियान के दौरान देखी। जितना लक्ष्य रखा गया था, इस देश के श्रद्धालु समाज ने उससे कई गुना अधिक राशि 'तेरा तुझको अर्पण' के भाव से समर्पित की। प्रभु श्रीराम ने सर्वसाधारण यानी वनवासी-गिरिवासी, केवट-निषाद-कोल-भील-किरात से लेकर वानर-भालू-रीछ जैसे वन्यप्राणियों को भी उनकी असीमित शक्ति की अनुभूति कराई थी। यह रामनवमी अपने भीतर छिपी उन्हीं आंतरिक शक्तियों को जागृत करने की है। हम संपूर्ण मानवता के शत्रु कोरोना रूपी रावण पर अपने सामूहिक धैर्य, विवेक, संयम, साहस और अनुशासन से विजय पा सकते हैं। उत्सवर्धिमता हम भारतीयों की पहचान है।
रामनवमी पर कोरोना का कुठाराघात
पिछली और इस वर्ष की रामनवमी पर भी कोरोना का कुठाराघात हुआ है। जनमानस भले ही हताश और निराश हो, पर पराजित नहीं। प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हम जीवन की अजेयता के गीत गाते रहे हैं, गाते रहेंगे। हमारी संस्कृति सृजनधर्मा है। हम सृजन के वाहक बन समय की हर चाप और चोट को सरगम में पिरोते रहेंगे। श्रीराम के प्रति अपनी सामूहिक आस्था एवं विश्वास के बल पर हम इस महा चुनौती से भी साहस, सावधानी और सतर्कता से जूझेंगे, लड़ेंगे और अंतत: पार पाएंगे। यह रामनवमी इसी संकल्प के साथ मनाएं।