50 साल पहले जैविक खाद थी भारत की उपज, अब वापस अपनी जड़ों की ओर लौटता देश

एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने अपने भाषण में कहा

Update: 2020-10-18 04:32 GMT
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने अपने भाषण में कहा कि 'किसान क्षेत्र के हित के लिए काम करने वाला हमारा संगठन सर्वमान्य संगठन बन गया है, और ऐसे हमारे संगठन को अनुकूलता भी प्राप्त हो गई है। क्योंकि जो हमारा विचार है, विज्ञान ने ही ऐसी करवट ले ली है कि जिन तत्वों का उद्घोष अपनी स्थापना के समय से हम करते आए, विरोधों के बावजूद, उनको मान्यता देने के बजाए दूसरा कोई पर्याय रहा नहीं अब दुनिया के पास। कृषि के क्षेत्र में और जो कॉलेज में से पढ़ा है ऐसा कोई व्यक्ति आपकी सराहना करे ऐसे दिन नहीं थे।

आज हमारे महापात्र साहब भी आपके कार्यक्रम में आकर जैविक खेती का गुणगान करते हैं। जैविक खाद के बारे में पचास साल पहले विदर्भ के नैड़प काका बड़ी अच्छी स्कीम लेकर केंद्र सरकार के पास गए थे। ये स्कीम अपने भारत की है, भारत के दिमाग से उपजी है, केवल मात्र इसके लिए उसको कचड़े में डाला गया। आज ऐसा नहीं है। पिछले छह महीने से जो मार पड़ रही है कोरोना की, उसके कारण भी सारी दुनिया विचार करने लगी है और पर्यावरण का मित्र बनकर मनुष्य और सृष्टि का एक साथ विकास साधनेवाले भारतीय विचार के मूल तत्वों की ओर लौट रही है, आशा से देख रही है।'

मोहन भागवत के भाषण के इस छोटे से अंश में कई महत्वपूर्ण बातें हैं जिनकी ओर उन्होंने संकेत किया है। पहली बात तो ये कि आज भारत और भारतीयता को प्राथमिकता मिल रही है। भारतीय पद्धति से की गई खोज या नवोन्मेष को या भारतीय पद्धतियों को मान्यता मिलने लगी है। मोहन भागवत ने ठीक ही इस बात को रेखांकित किया कि पूरी दुनिया भारत की ओर आशा से देख रही है।

मोहन भागवत के इस वक्तव्य के उस अंश पर विचार करने की जरूरत है जिसमें वो कह रहे हैं कि पूरी दुनिया पर्यावरण का मित्र बनकर मनुष्य और सृष्टि का एक साथ विकास साधने वाले भारतीय विचार के मूल तत्वों की ओर लौट रही है। दरअसल हमारे देश में हुआ ये कि मार्कसवाद के रोमांटिसिज्म में पर्यावरण की लंबे समय तक अनदेखी की गई।

आजादी के बाद जब नेहरू से मोहभंग शुरू हुआ या यों भी कह सकते हैं कि नेहरू युग के दौरान ही मार्क्सवाद औद्योगीकरण की अंधी दौड़ में शामिल होने के लिए उकसाने वाला विचार लेकर आया। औद्योगिकीकरण में तो विकास पर ही जोर दिया जाता है और कहा भी जाता है कि किसी भी कीमत पर विकास चाहिए। अगर विकास नहीं होगा तो औद्योगिकीकण संभव नहीं हो पाएगा। लेकिन किसी भी कीमत पर विकास की चाहत ने प्रकृति को पूरी तरह से खतरे में डाल दिया।

औद्योगिक विकास के नाम पर पर्यावरण पर प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश की। नतीजा क्या हुआ ये सबके सामने है। बाद में इस गलती को सुधारने की कोशिश हुई लेकिन तबतक बहुत नुकसान हो चुका था। खैर ये अवांतर प्रसंग है इस पर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी। अभी तो इसके उल्लेख सिर्फ ये बताने के लिए किया गया कि साम्यवादी और समाजवादी विचारधारा की बुनियाद प्रकृति को लेकर बेहद उदासीन और प्रभुत्ववादी रही है।

औद्योगिक विकास के नाम पर पर्यावरण पर प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश की। नतीजा क्या हुआ ये सबके सामने है। बाद में इस गलती को सुधारने की कोशिश हुई लेकिन तबतक बहुत नुकसान हो चुका था। खैर ये अवांतर प्रसंग है इस पर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी। अभी तो इसके उल्लेख सिर्फ ये बताने के लिए किया गया कि साम्यवादी और समाजवादी विचारधारा की बुनियाद प्रकृति को लेकर बेहद उदासीन और प्रभुत्ववादी रही है।

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