इसमें संदेह नहीं कि दूरसंचार क्रांति ने भारत की आर्थिक तरक्की में महती भूमिका निभाई है। चाहे वह कंप्यूटर से जुड़ी सेवाओं की बात हो या आनलाइन पढ़ाई-खरीदारी की, हर जगह आधुनिक दूरसंचार सेवाओं की मौजूदगी दिखाई पड़ती है। एक जमाने में लैंडलाइन वाले फोन से आगे बढ़ते हुए 2जी से लेकर 4जी तक मोबाइल-इंटरनेट की सहूलियतों के बल पर साकार हुई दूरसंचार क्रांति ने आम आदमी की जिंदगी में काफी बड़ा बदलाव ला दिया। कोरोना काल में तो यह बात और भी पुख्ता ढंग से साबित हुई कि दूरसंचार क्रांति के बल पर ऐसे-ऐसे काम घर बैठे संपन्न होने लगे, जिनके बारे में शायद अनुमान तक नहीं लगाया गया था।देश में चौथी पीढ़ी तक पहुंची मोबाइल-इंटरनेट सेवाओं ने साबित किया है कि अब कोई तरक्की संचार के भरोसेमंद नेटवर्क के बिना संभव नहीं है। यही वजह है कि देश में लंबे समय से पांचवीं पीढ़ी के संचार नेटवर्क यानी 5जी की अधीरता से प्रतीक्षा हो रही है। हाल में सरकार ने इसका एलान किया है कि भारत में 5जी नेटवर्क की शुरुआत अगस्त-सितंबर से हो जाएगी। इसके लिए 5जी स्पेक्ट्रम को मंजूरी दे दी है। दावा है कि 5जी नेटवर्क स्थापित हो जाने पर मोबाइल और इंटरनेट ग्राहकों को 4जी के मुकाबले दस गुना ज्यादा तेज दूरसंचार सेवाएं मिल सकेंगी।उल्लेखनीय है कि आज ब्राडबैंड (विशेषत: मोबाइल ब्राडबैंड) आम नागरिकों की जिंदगी का अहम हिस्सा बन चुका है। देश में वर्ष 2015 के बाद से 4जी सेवाओं का तेजी से विस्तार हुआ। इसी का नतीजा है कि आज देश में अस्सी करोड़ ग्राहकों की ब्राडबैंड तक पहुंच है, जबकि वर्ष 2014 में यह आंकड़ा साल महज दस करोड़ था।
तकनीक के रूप में देखें तो मोबाइल इंटरनेट पर बढ़ती निर्भरता हमें कृत्रिम मेधा (आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस) और 5जी सेलुलर नेटवर्क का हामी करार देती है। 2जी के मुकाबले 4जी का स्वाद चख चुके लोगों को 5जी की शरण में जाने से रोकना आसान नहीं होगा। बिना ड्राइवर कारें चलानी हों, टेली सर्जरी और मनोरंजन के लिए तेज रफ्तार से फिल्मों की डाउनलोडिंग से लेकर आनलाइन पढ़ाई की गति बढ़ानी हो तो तेज गति वाला इंटरनेट अब 5जी के रूप में ही ज्यादा मददगार है। यही वजह है कि अमेरिका, यूरोप, दक्षिण कोरिया और चीन आदि जैसे तेज तरक्की के ख्वाहिशमंद मुल्कों में 5जी परीक्षण काफी अरसे से चल रहे हैं। जापान जैसे कुछ देशों में तो 5जी पुरानी बात हो गई है। वहां 2030 तक 6जी को लाने की तैयारी चल रही है।लेकिन तकनीक के फायदे अपनी जगह हैं और उसे अभिशाप ठहराने वाली बातें अपनी जगह। आशंका है कि पहले से ही मोबाइल विकिरण की सीमित मार झेल रहे इंसानों की सेहत पर 5जी तकनीक आपदा बन कर टूटने वाली है। हालांकि अदालतों को ऐसे आरोपों की कोई ठोस जमीन नहीं मिली है।
अदालतों का मत है कि इस बारे में पर्याप्त शोध उपलब्ध नहीं हैं जो यह कहते और साबित करते हों कि मोबाइल विकिरण सच में इंसानों, जीवों या पर्यावरण के लिए घातक है। लेकिन इसकी एक सच्चाई यह है कि दुनिया में ऐसे दर्जनों शोध हैं जो मोबाइल फोन और इनके नेटवर्क के लिए आमतौर पर रिहाशयी इलाकों में इमारतों के ऊपर मौजूद टावरों से हानिकारक विकिरण फैलने का दावा करते हैं।भारत में ही 2011 में संचार तथा सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय की एक उच्चस्तरीय समिति ने शोध कर निष्कर्ष दिया था कि मोबाइल फोन और उसके टावर, दोनों ही सच में जीवधारियों के लिए समस्या है। इस समिति ने मोबाइल फोन और उनके टावरों से रेडियो आवृत्ति ऊर्जा के रूप में निकलने वाले विकिरण को तितलियों, मधुमक्खियों और गौरैया के विलुप्त होने के लिए भी जिम्मेदार माना था। उसी दौरान ऐसा ही नतीजा जेएनयू में एक सरकारी परियोजना के तहत चल रहे शोध में निकाला गया था। वहां चूहों पर हुए अध्ययन का नतीजा था कि मोबाइल फोन का विकिरण प्रजनन क्षमता पर असर डालने के अलावा मानव शरीर की कोशिकाओं के रक्षा तंत्र को नुकसान पहुंचाता है।
इन शोधों का साझा निष्कर्ष यह निकलता है कि सेलुलर फोन और टावरों से पैदा होने वाला रेडियो आवृत्ति क्षेत्र शरीर के ऊतकों पर असर डालता है। कुछ शोध यह भी कहते हैं कि यह ऊर्जा ब्रेन ट्यूमर, कैंसर, गठिया, अल्झाइमर और हृदय संबंधी रोगों का कारक हो सकता है। शायद यही वजह है कि ऐसे विकिरण के प्रभाव को सीमित करने के लिए दूरसंचार कंपनियां टावरों से मिलने वाले नेटवर्क की क्षमता नहीं बढ़ाती हैं।इससे काल ड्राप की समस्या होती है क्योंकि एक सीमित दायरे से बाहर टावरों का नेटवर्क नहीं मिलता। समस्या का समाधान यह है कि विकिरण की सुरक्षित सीमा वाले कम क्षमता वाले टावरों की संख्या बढ़ाई जाए, जो थोड़ी-थोड़ी दूरी पर लगे हों। लेकिन इसके लिए भारी निवेश की जरूररत है जो कंपनियां करना नहीं चाहतीं, क्योंकि ऐसा करना सरकार और कानून की ओर से बाध्यकारी नहीं बनाया गया है।
एक अन्य मुद्दा धीमी डाउनलोड गति का है। ज्यादातर उपभोक्ताओं की शिकायत है कि 4जी का पैसा लेने के बावजूद दूरसंचार कंपनियां 2जी या 3जी जैसी सेवाएं दे रही हैं। यह एक बड़ी धांधली है, जिसकी शिकायत पर अक्सर यह दलील दी जाती है कि हमारे देश में डाटा की खपत ज्यादा है। एक आकलन के मुताबिक भारत में औसतन डाटा खपत प्रति माह अठारह गीगाबाइट (जीबी) है, जबकि वैश्विक औसत ग्यारह जीबी प्रति माह ही है। इससे लगता है कि दूरसंचार संबंधी बुनियादी ढांचा डाटा खपत के मुताबिक नहीं हैं। ऐसे में ढांचागत क्षेत्र में और निवेश की जरूरत है।इसके अलावा डाटा दरों, काल टूटने और ध्वनि की गुणवत्ता के लिए कई कार्यों की आवश्कता है। जबकि कंपनिया दलील देती हैं कि हमारे देश में डाटा दरें करीब दो अमेरिकी डालर हैं, जबकि वैश्विक औसत पच्चीस अमेरिकी डालर है। यानी जब बात सेवाओं की बेहतरी की उठती है तो कंपनियां लागत और मुनाफे का गणित समझा कर मुद्दों को बिना समाधान के छोड़ देती हैं।
विकिरण कम करने से लेकर ग्राहकों की तेज इंटरनेट की मांग पूरा करने के लिए चूंकि ज्यादा संख्या में टावर लगाने और अन्य प्रावधान करने होंगे, जिससे कंपनियों का मुनाफा कम होगा। सवाल है कि जिस मुल्क में सेहत सरकारों की ही प्राथमिकता में न हो, जहां सरकारें बड़ी कंपनियों के आगे नत-मस्तक रहती हों, वहां क्या ऐसी तब्दीली कड़े कानूनी प्रावधानों के जरिए लाई जा सकेगी