आजादी की हकीकत
दो दशक पहले अफगानिस्तान को तालिबान से मुक्त कराने आया अमेरिका आखिरकार इस मुल्क को तालिबान के ही हवाले करके लौट गया।
दो दशक पहले अफगानिस्तान को तालिबान से मुक्त कराने आया अमेरिका आखिरकार इस मुल्क को तालिबान के ही हवाले करके लौट गया। इससे ज्यादा अफगानिस्तान की बदकिस्मती और क्या होगी! सोमवार देर रात अमेरिकी सैनिकों को लेकर काबुल हवाई अड्डे से आखिरी अमेरिकी विमान भी उड़ गया। इसके फौरन बाद तालिबान नेताओं ने अफगानिस्तान को आजाद घोषित कर दिया।
गौरतलब है कि पंद्रह अगस्त को तालिबान लड़ाकों ने काबुल को भी अपने कब्जे में ले लिया था। अफगानिस्तान में अब क्या होगा, इसकी भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता। देश में राजनीतिक अनिश्चितता का दौर है। अभी तक अंतरिम सरकार भी नहीं बनी है। इससे यह संकट और गहरा गया है कि कैसे देश का शासन-प्रशासन चलेगा, कैसे विदेशी दूतावास काम करेंगे, कैसे लोगों की समस्याएं दूर होंगी। और सबसे बड़ी बात यह कि अब तालिबान किस तरह का राज कायम करेगा? क्या वह अपने धार्मिक कानूनों को ही लोगों पर थोपेगा या फिर जमाने के हिसाब से और विश्व जनमत का सम्मान करते हुए उदार रुख अपनाएगा? दूसरा बड़ा संकट यह है कि तालिबान को अफगानिस्तान में मौजूद दूसरे जातीय और कबाइली गुटों का भी प्रतिरोध झेलना पड़ रहा है। तालिबान विरोधी विदेशी ताकतें इन समूहों के साथ हैं। ऐसे में यह देश गृहयुद्ध की आग में भी झुलस सकता है।
आने वाले वक्त का अफगानिस्तान कैसा होगा, यह अब काफी कुछ तालिबान की रीति-नीतियों पर निर्भर करेगा। पिछले एक पखवाड़े में तालिबान ने वादे तो बड़े-बड़े किए हैं। शुरूआती बयानों में तालिबान ने महिलाओं के प्रति बदले रुख का इजहार किया। महिलाओं से सत्ता और प्रशासन में शामिल होने की अपील भी की। विरोधियों और अमेरिका के लिए काम करने वालों को आम माफी की बात तक कह दी। इससे लगा कि सत्ता हासिल करने के बाद तालिबान अब दुनिया के साथ कदम मिला कर चलना चाहता है।
हालांकि ऐसी खबरें भी आ ही रही हैं कि कई जगहों पर तालिबान लड़ाकों ने दो दशक पहले वाला ही रवैया दिखाया। तब यह आशंका मजबूत होती दिखी कि तालिबान का वास्तविक रूप नहीं बदला है। इसलिए तालिबान सरकार को घरेलू और विदेशी दोनों ही मोर्चों पर अपने को खरा साबित करना होगा। इस वक्त अफगानिस्तान में शासन व्यवस्था ठप है। मुल्क कंगाली की कगार पर है। लोगों के पास पैसे नहीं हैं। खाने के लाले पड़ रहे हैं। जाहिर है, अफगानिस्तान के सामने चुनौतियां कम गंभीर नहीं हैं।
जहां तक बात है अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से तालमेल की, तो तालिबान शासकों के समक्ष बड़ी चुनौती अपने पक्ष में वैश्विक समर्थन जुटाने की है। इसके लिए उसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से लेकर अमेरिका और उसके समर्थक देशों की शर्तों पर खरा उतरना होगा। पहली शर्त तो यही कि अफगानिस्तान की जमीन को किसी भी तरह की आतंकी कार्रवाई या दूसरे देश पर हमला करने, आतंकियों को प्रशिक्षण देने जैसे काम के लिए इस्तेमाल न होने दिया जाए।
अब यह देखने की बात है कि तालिबान के लिए ऐसा कर पाना कहां तक संभव होगा। अमेरिका सहित सारे देश भी हकीकत से अनजान नहीं हैं। जो संगठन बना ही धर्मयुद्ध की बुनियाद पर है और जिसके पीछे पाकिस्तान जैसा देश मजबूती के साथ खड़ा हो, वह चरमपंथ छोड़ दे, यह कैसे संभव है! तालिबान की ताकत ही अलकायदा जैसे संगठन रहे हैं जिन्हें कभी अमेरिका सहित दूसरे देशों ने अपने हितों के लिए खड़ा किया था। तालिबान की पीठ पर अब पाकिस्तान, चीन और रूस जैसे देशों का हाथ है। इसलिए अफगानिस्तान नए संघर्ष का अखाड़ा बन जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।