किसी भी विधेयक का इस तरह भारी संशोधनों के साथ वापस लिया जाना सरकार के लिए अच्छा नहीं माना जाता। इससे यह रेखांकित होता है कि सरकार ने संबंधित कानून की रूपरेखा तैयार करने में जल्दबाजी दिखाई और उचित सलाह-मशविरा लेना उचित नहीं समझा। दरअसल, पिछले कुछ सालों से जिस तरह सरकार सदन में चर्चा कराए बगैर विधेयकों को पारित कराने की हड़बड़ी दिखाती रही है, उससे भी विपक्ष को ऐसा कहने का मौका मिल रहा है। इससे पहले भूमि अधिग्रहण कानून और तीन कृषि कानूनों को इसीलिए वापस लेना पड़ा कि उनमें गंभीर खामियां थीं।
डेटा संरक्षण विधेयक लाया गया, तब सरकार की तरफ से दावा किया गया कि इससे अपराधियों की पहचान करने में आसानी होगी और आतंकवाद जैसी समस्या पर नकेल कसने में काफी मदद मिलेगी। अभी तक आपराधिक मामलों में अपराधी की पहचान से जुड़े तथ्य जुटाने में पुलिस को काफी मशक्कत करनी पड़ती है और आनुवंशिक पहचान से जुड़े तथ्य जुटाने के लिए जांच एजेंसियों को अलग से मंजूरी आदि लेनी पड़ती है। इस तरह लंबा समय लगता और फिर न्याय प्रक्रिया में स्वाभाविक ही देरी होती रहती है। कई बार उचित दंड नहीं मिल पाता और साक्ष्य के अभाव में दोषी बच निकलते हैं।
मगर निजी जानकारियां जुटाना खासा पेचीदा मसला है। इससे लोगों की निजता का हनन होने का अंदेशा सदा बना रहता है। फिर जुटाए गए ब्योरों के बेजा इस्तेमाल का खतरा रहता है। हालांकि सरकार ने भरोसा दिलाया था कि वह व्यक्तिगत ब्योरों की सुरक्षा करेगी, पर इसका कोई लिखित वचन नहीं दिया गया था। फिर आधार कार्ड आदि के लिए जुटाए गए निजी ब्योरों के जिस तरह अनेक मामलों में बेजा इस्तेमाल की शिकायतें मिलती रही हैं, उससे लोगों को यह भरोसा कतई नहीं बन पा रहा था कि आपराधिक मामलों के लिए दर्ज ब्योरों में सेंधमारी नहीं हो सकेगी।
कई विदेशी कंपनियां लोगों के मोबाइल से उनका निजी डेटा चोरी करती पाई गई हैं, साइबर सेंधमारी करने वालों पर नकेल कसना मुश्किल बना हुआ है। ऐसे में लोगों के व्यक्तिगत जीवन से जुड़े ब्योरे सरकार कैसे खतरे में डाल सकती है। अच्छी बात है कि उसने वह विधेयक वापस ले लिया और अब इस पर व्यावहारिक कानून लाने की दिशा में प्रयास करेगी।
jansatta