पारदर्शिता के किसी पैमाने में बंधने के इच्छुक नहीं

Update: 2022-06-14 09:59 GMT

राजनीतिक पार्टियों ने खुद को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाए जाने के केंद्रीय सूचना आयोग के कदम पर जैसी क्षुब्ध प्रतिक्रिया जताई है, वह एक और सुबूत है कि पारदर्शिता की दुहाई देने वाले ये दल खुद ईमानदारी और पारदर्शिता के किसी पैमाने में बंधने के इच्छुक नहीं हैं।इस फैसले के बाद सत्ताधारी कांग्रेस ने ही सीआईसी को निशाने पर नहीं लिया है, बल्कि अब तक अपनी शुचिता के लिए पहचानी जाने वाली माकपा का बिफरना तो और भी आश्चर्यजनक है। राजनीतिक दलों को शायद यह एहसास नहीं रहा होगा कि सिविल सोसाइटी के दबाव पर सूचना के अधिकार का जो कानून अस्तित्व में आया, एक दिन खुद वे भी उसकी जद में आ जाएंगे।सवाल यह नहीं है कि राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने का अधिकार सीआईसी के पास है या नहीं, सच्चाई यह है कि राजनीतिक पार्टियों को पारदर्शी बनाने की कवायद को अब और नहीं रोका जा सकता। इस दिशा में चुनाव आयोग की पिछली एकाधिक कोशिशों को एकजुट होकर राजनीतिक दलों ने जिस तरह विफल कर दिया, वह रहस्य नहीं है।

कम से कम दो वजहों से सियासी दलों में पारदर्शिता का होना जरूरी है। एक तो चुनाव जितने खर्चीले हो गए हैं और इनमें काले धन के इस्तेमाल की जो बातें की जाती हैं, उसे देखते हुए राजनीतिक पार्टियों की आय के स्रोत के बारे में पारदर्शिता बहुत जरूरी है।राजनीतिक दलों की फंडिंग को सार्वजनिक करने की मांग तो बहुत पुरानी है। खुद सर्वोच्च न्यायालय अपने एक फैसले में कह चुका है कि देश के नागरिकों को यह जानने का अधिकार है कि चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों के खर्च का स्रोत क्या है।फिर, भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण के इस दौर में चुनावी प्रत्याशियों और मंत्रियों के चयन आदि की प्रक्रिया में पारदर्शिता क्यों नहीं होनी चाहिए? जब आप सार्वजनिक क्षेत्र के महत्वपूर्ण कामकाज से जुड़े हैं, और सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाते हैं, तो अपने बारे में जानकारी सार्वजनिक करने में आपत्ति क्यों है?
कैग की तरह अब सीआईसी को निशाना बनाने के बजाय राजनीतिक पार्टियां पारदर्शिता की ओर कदम बढ़ाएं, तो वह ज्यादा अच्छा होगा।

सोर्स-amarujala

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