जनता से रिश्ता वेबडेस्क : मासूम फिल्म का एक गाना है- छोटा बच्चा जान के हमको....। जी हां, अब बच्चे, बच्चे नहीं रहें। लखनऊ में पब्जी गेम से रोकने पर मां की हत्या और झांसी में मोबाइल गेम के लिए मां-पिता को नींद की गोलियां देने की घटनाएं मासूम की बदलती मनोदशा के लिहाज से काफी चिंताजनक हैं।
कोरोना काल के दौरान ऑनलाइन पढ़ाई के लिए जहां मोबाइल बच्चों के लिए कारगर औजार और वरदान साबित हुआ, वहीं इंटरनेट, ऑनलाइन गेम, सोशल मीडिया की लत ने बच्चों के व्यवहार को बदल कर रख दिया है। अब एक्चुअल क्लास में वर्चुअल के आदि बच्चों के व्यवहार में आए बदलाव ने शिक्षकों की सिरदर्दी बढ़ा दी है।
मोबाइल वरदान बनाम अभिशाप
आज मोबाइल हर घर का हिस्सा है। हर परिवार में करीब 90 फीसदी बच्चे मोबाइल का इस्तेमाल करने लगे हैं। कोरोना काल की आपदा के दौरान तो बच्चों के लिए मोबाइल ही ऑनलाइन पढ़ाई का जरिया बना। बच्चों के लिए स्लेट-पेंसिंल-कलम-कॉपी मोबाइल ही साबित हुए।अभिभावकों ने भी मोबाइल इस्तेमाल के लिए बच्चों को प्रोत्साहित किया, लेकिन लखनऊ की पब्जी गेम वाली घटना ने अभिभावकों की आंखें खोल दी है। अब जब कोरोना आपदा के बाद स्कूलों में एक्चुअल क्लास शुरू हुई तो ज्यादातर बच्चे बैग-बस्ते में चोरी-छिपे मोबाइल क्लास ले जाने लगे।गुरुजी से नजरें बचाकर मोबाइल स्क्रीन पर नजरें दौड़ाने लगे। इस बदले व्यवहार ने कक्षा में पढ़ाने वाले शिक्षकों के सामने बच्चों की पढ़ाई के लिए दिलचस्पी जगाने की चुनौती बढ़ा दी। अधिकांश स्कूल संचालकों और शिक्षक-शिक्षिकाओं का मानना था कि बच्चे चिड़चिड़े हो गए और मोबाइल से रोकने पर वह अवसाद-मनोविकार, गुस्से की गिरफ्त में आ गए। इतना ही नहीं, क्लास में पढ़ाई के बजाय मोबाइल पर ध्यान की वजह से उनकी समझने (ऑब्जर्व) करने की क्षमता भी प्रभावित हुई। एकाग्रता के अभाव में बच्चे भटकाव का शिकार हुए हैं।