द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति होना
श्रीमती द्रौपदी मुर्मू देश की 15वीं राष्ट्रपति चुन ली गई हैं। वह भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्राध्यक्ष होंगी जो कि भारत के लोकतन्त्र के मुकुट में एक 'जगमगाता' हीरा कहा जायेगा।
आदित्य चोपड़ा: श्रीमती द्रौपदी मुर्मू देश की 15वीं राष्ट्रपति चुन ली गई हैं। वह भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्राध्यक्ष होंगी जो कि भारत के लोकतन्त्र के मुकुट में एक 'जगमगाता' हीरा कहा जायेगा। मगर इससे भी ऊपर यह इस देश की जनतान्त्रिक व्यवस्था का ऐसा उज्ज्वल पक्ष होगा जिसमें प्रधानमन्त्री के पद पर एक साधारण चाय बेचने वाला और राष्ट्रपति के पद पर सदियों से हांशिये पर पड़े आदिवासी समाज की एक महिला विराजमान होगी। यह वास्तव में भारत के लोकतन्त्र की अन्तर्निहित ताकत का ही प्रदर्शन है। श्रीमती मुर्मू के इस पद पर बैठने से यह भी सिद्ध होता है कि भारत आजादी के बाद अपनी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में अब उस महत्वपूर्ण पड़ाव पर पहुंच चुका है जिसमें 'जर्रे को आफताब' बनाने की अद्भुत क्षमता है। ओडिशा के आदिवासी बहुल इलाके के एक छोटे से गांव में जन्मी श्रीमती मुर्मू ने अपने संघर्षपूर्ण जीवन में जिस प्रकार राजनीति में प्रवेश करके इसकी ऊंचाइयों को अपनी सादगी के भरोसे नापा उससे भारत की मिट्टी की तासीर का अन्दाजा भी आसानी से लगाया जा सकता है। उनका जीवन आदिवासी समाज के उत्थान के प्रति समर्पित भी रहा है जिसका एक उदाहरण उनके झारखंड के राज्यपाल रहते मिलता है। राज्यपाल पद पर रहते उन्होंने झारखंड की भाजपा की रघुबरदास सरकार का विधानसभा में पारित वह विधेयक लौटा दिया था जिसमें राज्य के वनवासियों की जमीन के अधिकारों को उनसे छिन जाने का खतरा पैदा हो सकता था। इसके बावजूद वह विवादास्पद नहीं बनी थीं क्योंकि उनका मन्तव्य जन कल्याण था। हालांकि उनके नामांकन के साथ ही यह तय माना जा रहा था कि वह ही राष्ट्रपति पद पर भारी मतों से विजयी होंगी क्योंकि उनके विरुद्ध कथित संयुक्त विपक्ष की ओर से जिन प्रत्याशी भूतपूर्व वित्तमन्त्री श्री यशवन्त सिन्हा को जिस मजबूरी में बिना समुचित पात्रता की परख किये खड़ा किया गया वह उसकी मजबूरी का ही बखान कर रहा था। विपक्ष ने तीन नेताओं गाेपाल गांधी (महात्मा गांधी के पौत्र), राष्ट्रवादी कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता श्री शरद पवार को इस पद पर खड़ा होने के लिए मनाने की कोशिश की थी। उनके मना करने पर उसने जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमन्त्री डा. फारूक अब्दुल्ला को टटोला और उनके भी मना करने पर उसने यशवन्त सिन्हा पर दांव लगा दिया। यशवन्त सिन्हा बेशक 1990 में चन्द्रशेखर सरकार में पहली बार वित्तमन्त्री बने थे मगर बामुश्किल छह महीने चली इस सरकार के दौरान हुजूर ने भुगतान सन्तुलन की समस्या से निपटने के लिए चन्द लाख डालर लेने के लिए भारत के आरक्षित स्वरण भंडार को विश्व बैंक में गिरवी रख दिया था। इसके बाद वह वाजपेयी सरकार में भी वित्त व विदेशमन्त्री रहे मगर उनके खाते में एक भी उपलब्धि जमा नहीं हो सकी। इसके विपरीत उस दौरान उनके वित्तमन्त्री रहते उनका नाम कथित 'यूटीआई घोटाले' में खूब उछला। हकीकत यह है कि विपक्ष के जितने भी दलों के सांसदों व राज्यों के विधायकों ने उन्हें वोट भी संभवतः 'मजबूरी' में ही केवल इसलिए दिया जिससे चुनावों में विपक्ष भी कहीं न कहीं दिखाई पड़ता रहे। लेकिन राष्ट्रपति का चुनाव राजनीति से ऊपर उठ कर होता है और इस मामले में विपक्ष के ही कुछ दलों की सदाशयता का संज्ञान लिया जाना चाहिए जिनमें झारखंड की कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार चलाने वाली झारखंड मुक्ति मोर्चा पार्टी का नाम उल्लेखनीय है जिसके नेता मुख्यमन्त्री हेमन्त सोरेन ने सारे बन्धन तोड़ कर श्रीमती मुर्मू के समर्थन की बेधड़क तरीके से घोषणा की। मगर इसके साथ यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि श्रीमती मुर्मू को अपना प्रत्याशी बनाने वाली पार्टी भाजपा ने भी अपना पत्ता बहुत होशियारी के साथ चला और विपक्ष के हाथों के तोते तक उड़ा दिये। जिसका परिणाम यह हुआ कि 2004 में वाजपेयी सरकार के बाद केन्द्र में गठित यूपीए की सरकार के नेता डा. मनमोहन सिंह की परोक्ष रूप से 'शिखंडी' से तुलना करने वाले यशवन्त सिंह को ही कांग्रेस को अपना वोट देना पड़ा। हालांकि राष्ट्रपति चुनाव ठीक उसी प्रकार होते हैं जिस प्रकार सामान्य सांसद या विधायक के चुनाव होते हैं जिनमें गुप्त मतदान द्वारा मतदाता अपनी पसन्द घोषित करते हैं मगर इस चुनाव का निर्वाचन मंडल केवल विधायकों व सांसदों तक ही सीमित रहता है और प्रत्येक राज्य के विधायक के वोट की कीमत उस राज्य की जनसंख्या पर निर्भर करती है। साथ ही मतदाताओं को खड़े हुए प्रत्याशियों के बीच अपनी वरीयता चिन्हित करने का हक भी होता है। इन चुनावों में कोई भी राजनीतिक दल अपने चुने हुए सांसदों व विधायकों के नाम व्हिप (निर्देश-चेतना) भी जारी नहीं कर सकता अतः प्रत्येक मतदाता अपनी मनमर्जी के प्रत्याशी को अपना वोट दे सकता है। संपादकीय :अमृत महोत्सव : दर्द अभी जिंदा है-4मुफ्त की 'रेवड़ी' का रिवाजअमृत महोत्सव : दर्द अभी जिंदा है-3नूपुर को राहतअमृत महोत्सव : दर्द अभी जिंदा है-2अमृत महोत्सवः दर्द अभी जिंदा हैइसके बारे में स्वतन्त्र भारत की आम जनता के पहली बार तब कान खड़े हुए थे जब प्रधानमन्त्री रहते हुए स्व. इंदिरा गांधी ने स्वयं ही 1969 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में अपनी ही पार्टी कांग्रेस के आधिकारिक प्रत्याशी स्व. नीलम संजीव रेड्डी का विरोध किया था और उपराष्ट्रपति रहे स्व. वी.वी. गिरी के स्वतन्त्र उम्मीदवार के रूप में खड़े होने पर उनका समर्थन यह कहते हुए किया था कि सभी सांसद व विधायक अपनी 'अन्तर्आत्मा' की आवाज पर वोट डालें। हालांकि अन्तर्आत्मा शब्द का उपयोग यशवन्त सिन्हा ने भी किया मगर विपक्षी दलों में इसका असर उलटा हुआ और बहुत से विपक्षी मतदाताओं ने श्रीमती मुर्मू को ही वोट डाल दिया। अकेले संसद के 100 भाजपा विरोधी सांसदों ने ही श्रीमती मुर्मू को वोट दिया। राज्यों में तो यह संख्या और भी अच्छी खासी रही। मगर आज का दिन राजनीति का विश्लेषण करने का नहीं बल्कि जश्न मनाने का है क्योंकि सूरज ने आदिवासी झोपड़ी में पैदा हुई एक महिला को अपनी किरणों की चमक से खुद 'सूरज' बना दिया है