पूर्णिमा वाले सप्ताह में क्यों ज्यादा होती है आत्महत्या?
लोगों में रहस्यमय परिवर्तन हो सकते हैं।
न्यूयॉर्क (आईएएनएस)| सदियों से लोगों को संदेह है कि पूर्णिमा के दौरान लोगों में रहस्यमय परिवर्तन हो सकते हैं। अमेरिका के इंडियाना यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ मेडिसिन के मनोचिकित्सकों ने पाया है कि पूर्णिमा के दौरान आत्महत्या से होने वाली मौतें बढ़ जाती हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार, पूर्णिमा से बढ़ी हुई रोशनी उस अवधि के दौरान आत्महत्याओं में वृद्धि का कारण हो सकती है।
परिवेश की रौशनी की शरीर, दिमाग और व्यवहार की जैव घड़ी तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है जिससे यह तय होता है कि हम कब जागते और कब सोते हैं।
रात के समय, जब अंधेरा होना चाहिए, पूर्णिमा में प्रकाश बढ़ने से लोगों पर उसका प्रभाव पड़ता है।
टीम ने 2012-2016 के बीच इंडियाना प्रांत में हुई आत्महत्याओं के आंकड़ों का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि पूर्णिमा के सप्ताह के दौरान आत्महत्या से होने वाली मौतें काफी बढ़ गई थीं। उन्होंने यह भी पाया कि 55 वर्ष से अधिक आयु के लोगों में इस दौरान आत्महत्या की घटनाएं और भी ज्यादा तेजी से बढ़ी हैं।
उन्होंने आत्महत्या के समय और महीनों पर भी ध्यान दिया और पाया कि दोपहर बाद 3 बजे से 4 बजे के बीच के समय और सितंबर के महीने में आत्महत्याएं ज्यादा होती हैं।
डिस्कवर मेंटल हेल्थ नामक पत्रिका में प्रकाशित शोध में अध्ययन के लेखक अलेक्जेंडर निकुलेस्कु ने लिखा, हम इस परिकल्पना का विश्लेषण करना चाहते थे कि पूर्णिमा के आसपास की अवधि के दौरान आत्महत्याएं बढ़ जाती हैं और यह जानना चाहते थे कि क्या उस दौरान आत्महत्या के जोखिम वाले मरीजों का ज्यादा ध्यान रखना चाहिए।
निकुलेस्कु और उनकी टीम ने मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों जैसे चिंता, अवसाद और अभिघातजन्य तनाव विकार तथा दर्द के लिए ब्लड बायोमार्कर परीक्षण विकसित कर चुकी है।
अधिकारियों द्वारा मौत के बाद लिए गए रक्त के नमूनों का उपयोग करके, टीम ने यह पता लगाया कि आत्महत्या करने वालों में कौन से बायोमार्कर मौजूद थे। निकुलेस्कु ने कहा, हमने आत्महत्या के लिए शीर्ष ब्लड बायोमार्कर की एक सूची का परीक्षण किया जिसे हमने पिछले अध्ययनों में पहचाना था।
विश्लेषण करने पर पता चला कि जो लोग पूर्णिमा वाले सप्ताह में दोपहर तीन से चार बजे के बीच सितंबर महीने में आत्महत्या कर सकते हैं उनमें ब्लड बायोमार्कर एक जीन होता है जो शरीर की जैविक घड़ी को नियंत्रित करता है।
शोधकर्ता ने कहा, बायोमार्कर का उपयोग करते हुए हमने पाया कि शराब की लत या अवसाद वाले लोग इन समय अवधि के दौरान अधिक जोखिम में हो सकते हैं।
उन्होंने कहा कि आत्महत्या में परिवेशी प्रकाश और जैविक घड़ी के प्रभाव का अधिक बारीकी से अध्ययन करने की आवश्यकता है। साथ ही यह भी कि लोग कैसे सोते हैं और प्रकाश के संपर्क में कैसे आते हैं।
अध्ययन में कहा गया है, प्रकाश में परिवर्तन अन्य जोखिम कारकों के साथ कमजोर लोगों को प्रभावित कर सकता है।
दोपहर बाद 3 से 4 बजे के बीच आत्महत्याएं ज्यादा होने का संबंध दिन भर की थकान से हो सकता है। साथ ही उस दिन शुरुआत कम प्रकाश से होने से जैविक घड़ी जीन और सर्केडियन क्लॉक जीन और कोर्टिसोल में कमी भी इसकी वजह हो सकती है।
सितंबर में, बहुत से लोग गर्मियों की छुट्टियों के अंत का अनुभव कर रहे होते हैं, जो तनाव का कारण बन सकता है, साथ ही मौसमी भावात्मक विकार प्रभाव भी, क्योंकि वर्ष के उस समय के दौरान दिन का प्रकाश कम हो जाता है।
निकुलेस्कु ने कहा, हमारा अध्ययन दिखाता है कि पूर्णिमा, पतझड़ का मौसम और देर से दोपहर आत्महत्या के लिए बढ़ते जोखिम के अस्थायी समय हैं, खासकर उन व्यक्तियों के लिए जो अवसाद या शराब के उपयोग के विकारों से पीड़ित हैं।