सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक नहीं लिया कृषि कानूनों पर समिति की रिपोर्ट का संज्ञान

ऐसे रवैये से तो समस्या बढ़ेगी ही।

Update: 2021-09-08 04:38 GMT

कृषि कानूनों की समीक्षा के लिए बनाई गई समिति के सदस्य अनिल घनवट का इससे दुखी होना स्वाभाविक है कि सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक इस समिति की रपट का संज्ञान नहीं लिया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश को चिट्ठी लिखकर न केवल इस रपट का संज्ञान लिए जाने की मांग की है, बल्कि यह भी अनुरोध किया है कि उसे सार्वजनिक किया जाए। कायदे से सुप्रीम कोर्ट को अपने स्तर पर ही ऐसा करना चाहिए था, क्योंकि खुद उसी ने इस समिति का गठन किया था। कोई नहीं जानता कि तय समय में रपट तैयार कर सुप्रीम कोर्ट को सौंप दिए जाने के बाद भी उसका संज्ञान क्यों नहीं लिया जा रहा है? इस देरी का एक दुष्परिणाम तो यह है कि तीनों कृषि कानून लंबित पड़े हुए हैं और दूसरे, किसान संगठन अपनी सक्रियता बढ़ाते चले जा रहे हैं। उनके साथ ही कई विपक्षी दल भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हुए हैं। वास्तव में इसी कारण किसान संगठनों की गतिविधियां बढ़ती हुई दिख रही हैं। अब तो यह भी साफ है कि उनका आंदोलन पूरी तौर पर राजनीतिक रूप ले चुका है। वे पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के आगामी विधानसभा चुनावों में अपनी ताकत का प्रदर्शन करने के लिए तैयार दिख रहे हैं। इसी कारण वे न केवल नई-नई जगहों पर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं, बल्कि पुराने धरना स्थलों पर भीड़ बढ़ाकर अपनी ताकत का परिचय दे रहे हैं। इसमें हर्ज नहीं, लेकिन समस्या यह है कि उनके धरने लोगों को तंग करने का काम कर रहे हैं।

दिल्ली सीमा पर बीते नौ महीनों से तीन स्थानों पर रास्ते बाधित हैं। इसके चलते हर दिन लाखों लोगों को परेशानी उठानी पड़ रही है। इससे सुप्रीम कोर्ट भी परिचित है, लेकिन पता नहीं क्यों वह बाधित रास्ते खुलवाने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहा है? बीते दिनों ही उसने रास्ते खोले जाने की एक याचिका को सुनने से इन्कार कर दिया। आखिर इसे किसान संगठनों के धरने से त्रस्त हो रहे आम लोगों की उपेक्षा के अलावा और क्या कहा जा सकता है? समझना कठिन है कि जिस मुद्दे पर जमकर राजनीति हो रही है और लोगों को परेशान करने वाले काम किए जा रहे हैं, उसे सुप्रीम कोर्ट हाथ क्यों नहीं लगाना चाहता? सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर गठित समिति ने अपना काम मार्च में ही पूरा कर दिया था, लेकिन पांच माह बीत जाने के बाद भी वह न्यायाधीशों की प्राथमिकता सूची से बाहर है। इसका कोई औचित्य नहीं कि सुप्रीम कोर्ट पहले तो किसी मामले में खुद ही दखल दे और फिर उसकी अनदेखी करने वाला रवैया अपना ले। ऐसे रवैये से तो समस्या बढ़ेगी ही।

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