यह भाव प्रायः विरल है, परंतु है। वधुएं, जिन्हें प्रिय के साथ रहने की अब आदत हो गई हैं, वे इनके घर में रहते-रहते कभी नैहर नहीं जाना चाहतीं। धान रोपने के बाद कुछ दिनों के लिए खेती-गृहस्थी का काम समाप्त हो जाता है। पुरुष अक्सर पूरब-पश्चिम की तरफ रोजी-रोटी के जुगाड़ में निकल जाया करते हैं। घर में रह जाती हैं हर आयु वर्ग की स्त्रियां। सावन-भादो मास की अहर्निश बारिश और मेघ का गर्जन-तर्जन मन में भय पैदा करता है, ऐसे में रात आंखों में ही कटती है। सामान्यतः कृषकों का घर पक्का नहीं होता और वह भी नदी किनारे के गांवों में। ऐसे में पिया के बिना घर में अकेली स्त्रियां गीतों के बोल गा-गुनगुनाकर रात काटती हैं-मास भादो, चहुंदिस कादो/रिमझिम बरिसय मेघ हे/पिया बिनु धनी थरथर कांपय/दादुर मचबय शोर हे।
(भादो के महीने में चारों तरफ कीचड़ ही कीचड़ है, मेघ रिमझिम-रिमझिम बरस रहा है, मेढ़क शोर मचा रहे हैं, ऐसे में अपने प्रिय के बिना दुल्हन थरथर कांप रही है।) जिनके प्रिय या स्वामी पहले से ही गांव से बाहर परदेस गए हुए होते हैं, वे अलग बिसुरती हैं-झिंसिया पड़े सावन की बुंदिया/पिया संग खेलब पचीसी ना।
पचीसी नितांत ग्रामीण खेल है, जिसे खेलने के लिए किसी बोर्ड की जरूरत नहीं पड़ती है। मिट्टी के फर्श पर पतली लकड़ी से रेखाएं उकेर दी जाती हैं और छोटे-छोटे पत्थरों के गुटके से खेल शुरू कर दिया जाता है। हार-जीत का वैभव मात्र आनंद में निहित होता है। यह खेल एक तरह से मान लीजिए कि ग्रामीण शतरंज है, जिसे लोग कौड़ियों के साथ खेलते हैं, मुहरों से नहीं। ऐसे में उपालंभ भी चलता है। देर रात को भिनुसार आए पति से पूछा जाता- सावन-भादो के निशि अधिरतिया/कहां तू गमैलअ सगरी राति जी? उत्तर भी सीधा-सा मिलता, कोई लाग-लपेट नहीं-तोरो सं सुंदर एगो मालिन बेटी/उहे लेलक हमरा लोभाय जी। मालिन से अपनी प्रिया के लिए गजरा खरीदने गए थे, लेकिन उसके रूपजाल में फंस गए मरदूद।
लोक जीवन के ये सारे व्यवहार अब अतीत की बातें हो गई हैं। वह समय बीत गया, जब गीतों के सहारे रोग-शोक कट जाते थे। गीतों के सहारे ही उल्लास का वातावरण निर्मित किया जाता था। अब सब कृत्रिम है। आजकल धान रोपने वाले मजूर भी जेब में मोबाइल रखकर रेडीमेड गाना सुन लेते हैं। रस निष्पत्ति का कारक बदल गया है। नहीं बदला है, तो अब भी नारी मन, जो लौट-लौटकर अमराई में जाता है। कजरी लोकधुन पर थिरकता है। खेत रोपकर लौटी स्त्रियां दीया-बाती जलाकर एक जगह पर जुटती हैं और ढोलक पर थाप देकर गाती हैं- कैसे खेलन जैबो सावन में/ कजरिया बदरिया घिर आई ननदी। कइसे जइबहू तू अकेली/केहू संग न सहेली/कृष्णा रोक लीहें हमरी डगरिया/बदरिया घिर आई ननदी।
आनंद की सृष्टि उसी तरह होती है, जैसे धान की फसल। हरियाया कलंगी उठाकर झूमता धान नयनाभिराम लगता है। तभी तो योगेश्वर कृष्ण अर्जुन से कहते हैं-हे पार्थ, मैं बारहों मास में श्रावण हूं। यानी जीवनी शक्ति का बीज हूं, जो समय पाकर भकरार हो जगत का पालन करता है।
प्रीत ही एक लड़ी है, जो स्त्री-पुरुष के अकुंठ प्रेमभाव को अक्षुण्ण रखती है। लाख भरम पैदा हों, प्रीत में कहीं कोई भरम नहीं है। इन्हीं आशा और विश्वास के बल पर कृषक-वधुएं अपनी फसलों की रक्षा करती हैं। नैहर जाना नहीं चाहतीं, अपने स्वल्प खेत की धान-पान की रक्षा करना चाहती हैं। वे कुआंर-कातिक की प्रतीक्षा करती हैं, जब खेत से दाने खलिहान आना शुरू होंगे। उनकी सार-संभाल के लिए मृत्तिका पात्र बनाना चाहती हैं और बार-बार सुनाती हैं यह संवाद-सोने की थारी में जेवना परोसे/चाहे भैया खाये चाहे न हो/सवनमा में ना जइबे ननदी/नाहक भैया आवेलन लेअनमां/सवनमा में ना जइबे ननदी।