तालिबान के जाल में फंसता जा रहा है अफगानिस्तान, जानें क्यों हो रहा ऐसा
अफगानिस्तान में जैसा होने की उम्मीद थी वैसा ही हो रहा है
अफगानिस्तान (Afghanistan) में जैसा होने की उम्मीद थी वैसा ही हो रहा है. अमेरिकी सैनिकों (US Army) की वापसी के साथ तालिबान (Taliban) एक बार फिर सिर उठाने लगा है. उसका नियंत्रण क्षेत्र बढ़ने लगा है. अफगानिस्तान में तालिबान की क्या भूमिका है और अमेरिकी सेना का वहां रहने और जाने से क्या असर होगा हाल के घटना क्रम में जानना अहम हो गया है क्योंकि आने वाले में समय तालिबान का वर्चस्व यूं ही बढ़ता रहा तो जल्द ही उसका पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा होगा जाएगा. इससे एक बार फिर वह हालात पैदा होने की आशंका है जो करीब 22-24 साल पहले थे. आखिर तालिबान इतना खास क्यों है और इसके वर्चस्व का बढ़ना चिंता की बात क्यों है.
तालिबान क्या है
तालिबान एक सुन्नी इस्लामिक आंदोलन था जो दक्षिणी अफगानिस्तान में 1994 के आसपास शुरू हुआ था. तालिबान का पश्तो भाषा में मतलब इस्लामिक कट्टरपंथ को मानने वाले छात्र होता है. शुरू में यह एक राजनैतिक आंदोलन माना गया जिसके सदस्य पाकिस्तान और अफगानिस्तान के मदरसों में पढ़ने वाले छात्र होते हैं..
कब चर्चित हुआ तालिबान
अभी की समस्या के लिहाज से तो तालिबान 1990 के दशक मध्य में दुनिया के परिदृश्य में आया था जब उसने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा किया और दो सालों में उसने अफगानिस्तान के 90 प्रतिशत हिस्से पर अधिकार जमा लिया था. सोवियत सैनिकों के अफगानिस्तान से जाने के बाद गृह युद्ध के जैसे हालात का सामना कर रहे अफगानी लोग बुरहानुद्दीन रब्बानी के शासन से तंग आ चुके थे. तालिबान ने बदलाव की एक उम्मीद दिखाई थी.
कंट्टर पंथी कानून
धीरे धीरे तालिबान ने अपने कट्टरपंथी कानूनों को लागू करने शुरू किया और महिलाओं सहित बच्चों और आम लोगों पर तमाम तरह की पाबंदियां लगाना शुरू कर दीं. इसमें लड़कियों के स्कूल जाने पर पाबंदी तक शामिल थी. लेकिन जल्द ही तालिबान मानवाधिकार हनन के लिए दुनिया में जाना जाने लगा. तालिबान को केवल सऊदी अरब, पाकिस्तान और संयुक्त अरब अमीरात ने मान्यता दी थी.
अमेरिका के साथ टकराव
यहां तक तालिबान और अमेरिका में सीधा टकराव नहीं हुआ था, लेकिन 11 सितंबर 2001 में न्यूयॉर्क में हुए वर्ल्ट ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद जब आतंकी ओसामा बिन लादेन के तालिबान की शरण में आकर अफगानिस्तान में छिपे होने बात आई तब से अमेरिका और तालिबान में सीधा टकराव हो गया. इसके बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपनी सेना भेजी और तालिबान को हटाकर एक लोकतांत्रिक सरकार का गठन किया.
कमजोर होता गया तालिबान
साल 2012 तक तालिबान खुल कर अमेरिका के खिलाफ अफगानिस्तान में लड़ता रहा. लेकिन दोनों के बीच समझौता नहीं हो सका. इसके बाद भी हिंसा का दौर तो नहीं थमा, दोनों के बीच बड़ा युद्ध जैसे टकराव भी देखने को नहीं मिला. 2016 से तालिबान को नेतृत्व हिब्तुल्लाह अखुंजादा के हाथ में है. तालिबान उस समय काफी कमजोर हो गया था.
अमेरिका की वापसी
फरवरी 2020 में अमेरिका और तालिबान के बीच वार्ता हुई तो नाकाम रही. इसके बाद से तालिबान के हमले तीखे होते गए और उसके हमलों में आम लोगों के शिकार होने की संख्या बढ़ने लगी. अब जब अमेरिका ने 11 सितंबर तक पूरी सेना को वापस बुलाने की तारीख तय कर दी है. तालिबान फिर से अपना सिर उठाने लगे हैं. हाल ही में ताजिकस्तान ने कहा है कि करीब एक हजार अफगानी सैनिक तालिबान के डर से उनके यहां भाग आए हैं.
तालिबान के पाकिस्तान से गहरे संबंध हैं पाकिस्तान को उसका समर्थन है जो भारत के लिए ठीक नहीं हैं. तालिबान के मुजाहिद्दीन पाकिस्तानी आतंकियों के साथ भारत के कश्मीर में हिंसा फैलाने का काम करते पाए गए हैं. इसके अलावा भारत ने चाबहार बंदरगाह सहित अफगानिस्तान में बहुत सा निवेश किया है जो तालिबान के आने से खतरे में पड़ सकता है.