चिकित्सा (ट्रीटमेंट):- Treatment
चिकित्सक, परिचायक, औषध और रोगी, ये चारों मिलकर शारीरिक धातुओं की समता के उद्देश्य से जो कुछ भी उपाय या कार्य करते हैं उसे चिकित्सा कहते हैं। यह दो प्रकार की होती है : (१) निरोधक (प्रिवेंटिव) तथा (२) प्रतिषेधक (क्योरेटिव);
जैसे शरीर के प्रकृतिस्थ दोषों और धातुओं में वैषम्य (विकार) न हो तथा साम्य की परंपरा निरंतर बनी रहे, इस उद्देश्य से की गई चिकित्सा निरोधक है तथा जिन क्रियाओं या उपचारों से विषम हुई शरीरिक धातुओं में समता उत्पन्न की जाती है उन्हें प्रतिषेधक चिकित्सा कहते हैं।
पुनः चिकित्सा तीन प्रकार की होती है - (१) दैवव्यपाश्रय (२) सत्वावजय (३) युक्तिव्यपाश्रय।[18]
दैवव्यपाश्रय divine shelter
जो रोग दोषज ना होकर कर्मज होते हैं, जो पूर्वजन्मकृत पापों से या सिद्ध, ऋषि या देवता आदि के अपमान करने पर उनके शाप से होते हैं, उनकी शान्ति के लिए मंत्र, व्रत, उपवास करना, मंगलवाचक वेदमंत्रों का पाठ करना, देवता, गुरु व ब्राह्मण को झुककर प्रणाम करना और तीर्थयात्रा करना आदि उपाय हैं।
सत्वावजय (साइकोलॉजिकल) Sattvajaya (Psychological)
मानसिक् रोगों को नियन्त्रित करने के लिए ज्ञान-विज्ञान-धैर्य-स्मृति और समाधि द्वारा मन को एकाग्र करना तथा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक आहार-विहार से मन को रोकना 'सत्त्वावजय' चिकित्सा है।
गीता में स्पष्ट उल्लिखित है- मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः - केवल मानसिक ही नहीं अपितु अनेकानेक शारीरिक रोगों की चिकित्सा में भी यदि मनुष्य को प्रेरित किया जाए तो आशातीत सफलता प्राप्त होती है। इसमें मन को अहित विषयों से रोकना तथा हर्षण, आश्वासन आदि उपाय हैं।
अनेेकानेक व्यक्तियों ने अपने आत्मबल के बलबूते पर गम्भीर रोगों को परास्त किया है। अतएव एक सफल चिकित्सक रोगी के आत्मबल को विकसित करने का प्रयास करता है। इसमें ग्रह आदि दोषों के शमनार्थ तथा पूर्वकृत अशुभ कर्म के प्रायश्चित्तस्वरूप देवाराधन, जप, हवन, पूजा, पाठ, व्रात, तथा मणि, मंत्र, यंत्र, रत्न और औषधि आदि का धारण, ये उपाय होते हैं।