महावीर कर्ण के बिना महाभारत युद्ध की कल्पना भी नहीं की जा सकती। साथ ही इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कौरवों के सेनापति कर्ण अपने प्रतिद्वंदी अर्जुन से भी बड़े धनुर्धर थे, जिसकी तारीफ स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने की थी। कर्ण न केवल एक शक्तिशाली योद्धा थे बल्कि बहुत बड़े दानवीर भी माने जाते थे। जिन्होंने बिना युद्ध का परिणाम सोचे अपने कवच-कुंडल दान में दे दिए। कर्ण जन्म से क्षत्रिय थे लेकिन वह रथ चालक के घर पलकर बड़े हुए थे, जिससे उनका एक नाम सूत पुत्र भी पड़ा। उनकी वीरता को देखते हुए दुर्योधन ने उनको अंगदेश का राज सिंहासन दे दिया और जरासंध के हारने के बाद चंपा नगरी का भी राजा बना दिया। लेकिन इस महान योद्धा का जीवन किसी तपस्या से कम नहीं था। इन्हें कई ऐसे कर्मों का परिणाम भी भोगना पड़ा जिसमें इनकी कोई गलती नहीं थी। अनजाने किए काम और दूसरों की भलाई के चक्कर में इन्हें 3 ऐसे शाप मिल गए जो इनके लिए प्राणघातक साबित हुए, इन्हीं 3 शापों की वजह से महाभारत के निर्णायक युद्ध में इन्हें अर्जुन के हाथों वीरगति प्राप्त हुई।
पहला शाप परशुराम ने दिया
कर्ण जब धनुर्विद्या सीखने के लिए गुरु द्रोणाचार्य पास पहुंचे तो उन्होंने कर्ण के सूत पुत्र होने की वजह से शिक्षा देने से मना कर दिया। कर्ण इससे निराश होकर भगवान परशुराम के पास पहुंचे। परशुरामजी ने कर्ण की प्रतिभा को जानकर उन्हें अपना शिष्य बना लिया। एक दिन अभ्यास के समय जब परशुराम थक चुके थे तो उन्होंने कर्ण से कहा कि वे थोड़ा आराम करना चाहते हैं। तब कर्ण बैठ गए और उनकी जंघा पर सिर रखकर परशुराम आराम करने लगे। थोड़े समय बाद वहां एक बिच्छू आया, जिसने कर्ण की जंघा को काट लिया। अब कर्ण ने सोचा कि अगर वह हिले और बिच्छू को हटाने की कोशिश की तो गुरुदेव की नींद टूट जाएगी। इसलिए उन्होंने बिच्छू को हटाने की बजाय उसे डंक मारने दिया, जिससे उनका खून बहने लगा। इससे कर्ण को भयंकर कष्ट होने लगा और रक्त की धारा बहने लगी। जब धीरे-धीरे रक्त गुरु परशुराम के शरीर तक पहुंचा तो उनकी नींद खुल गई। परशुराम ने देखा कि कर्ण की जांघ से खून बह रहा है। यह देखकर परशुराम क्रोधित हो गए कि इतनी सहनशीलता केवल क्षत्रिय में ही हो सकती है। तुमने मुझसे झूठ बोलकर ज्ञान प्राप्त किया है इसलिए मैं तुमको शाप देता हूं कि जब भी तुम्हें मेरी दी हुई विद्या की सबसे ज्यादा जरूरत होगी, उस समय वह काम नहीं आएगा। दरअसल परशुरामजी क्षत्रियों को ज्ञान नहीं देते थे। कर्ण को उन्होंने सूत पुत्र जानकर ज्ञान प्रदान किया था।
इस वजह से परशुराम ने दिया कर्ण को शाप
शाप मिलने पर कर्ण बहुत दुखी हुए और परशुराम के चरणों में गिरकर माफी मांगने लगे। उन्होंने गुरु परशुराम से बताया कि उन्हें तो अपने वास्तविक माता-पिता का ज्ञान भी नहीं है, वह तो अपने माता-पिता को गंगा में बहते हुए मिले थे। यहां मैं सीखने की मंशा से आया था कोई भी मुझे सूत पुत्र होने के कारण ज्ञान प्रदान करने के लिए तैयार नहीं था। केवल आप ही ऐसे इंसान हैं, जिनकी मुझ पर कृपा हुई है। कर्ण की बातों से परशुरामजी का क्रोध शांत हुआ और कहा कि शाप तो वापस नहीं आ सकता लेकिन तुम जिस यश के लिए भाग रहे हो, वह तुमको जरूर मिलेगा और तुम महानतम धनुर्धर बनोगे। इसके बाद परशुराम ने कर्ण को अपना विजय धनुष प्रदान किया।
दूसरा शाप एक ब्राह्मण ने दिया
कर्ण को दूसरा शाप एक ब्राह्मण ने दिया था। एक दिन कर्ण शब्दभेदी बाण चलाने का अभ्यास कर रहे थे। तभी उनको झाड़ियों में से किसी जीव के चलने की आवाज आई तो उन्होंने समझा कि कोई हिंसक जीव हो सकता है, जो यहां रहने वाले मनुष्यों के लिए खतरा बन सकता है इसलिए उन्होंने बिना पड़ताल किए बाण चला दिया। बाण किसी हिंसक जीव को नहीं बल्कि एक बछड़े को लग गया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई। उस बछड़े का मालिक एक ब्राह्मण था, जो यह सब देखकर दुखी हो गया और क्रोध में आकर कर्ण को एक शाप दे दिया। ब्राह्मण ने कर्ण को शाप देते हुए कहा कि जिस तरह तुमने असहाय गाय के बछड़े को मारा है उसी तरह तुम्हारी भी असहाय स्थिति में मृत्यु होगी। मृत्यु के निर्णायक क्षण में तुम खुद को असहाय समझोगे। कर्ण ब्राह्मण से माफी मांगता है लेकिन वह उसे माफ नहीं करता। ब्राह्मण कहता है कि अगर माफी चाहिए तो उसे सबसे सबसे पहले मेरी गाय के बछड़े को जीवित करना होगा। लेकिन ऐसा करना किसी के बस में नहीं।
तीसरा शाप भी ब्राह्मण का ही था
ब्राह्मण ने इसी संदर्भ में एक और शाप दिया था कि जिस तरह तुम रथ पर सवार होकर सर्वश्रेष्ठ बन जाते हो। दूसरों पर बिना गलती के और बिना किसी विचार के बाण चलाते हुए। जब तुम जीवन का निर्णायक युद्ध लड़ रहे होगे उस समय तुम्हारे रथ का पहिया जमीन में धंस जाएगा और तुम अपने सम्मान की ऊंचाईयों से नीचे आ जाओगे। कर्ण जब महाभारत का निर्णायक युद्ध लड़ रहे होते हैं तब उनके रथ का पहिया जमीन में धंस जाता है और उन्हें रथ से नीचे उतकर स्वयं ही रथ के पहिए को भूमि से निकालने का प्रयास करना पड़ता है। इसी समय अर्जुन दिव्याशास्त्र चला देते हैं और कर्ण को वीरगति प्राप्त हो जाती है।
लोक कथाओं में है कर्ण का एक और शाप
आंध्र प्रदेश की लोक कथाओं में कर्ण के शाप के बारे में कथा मिलती है कि, एक बार कर्ण कहीं जा रहे थे तो उनको रास्ते में एक कन्या मिलती है जो अपने घड़े से घी के बिखर जाने की वजह से रो रही थी। कर्ण ने कन्या से पूछा आखिर तुम रो क्यों रही हो तो कन्या ने उसे बताया की घड़े में से घी गिर गया है और अब उसकी मां उस पर गुस्सा करेंगी। तब कर्ण ने दूसरा घी से भरा हुआ घड़ा कन्या को देने का आश्वासन दिया लेकिन उसने लेने से मना कर दिया और कहा कि उसे वही मिट्टी में मिला हुआ घी चाहिए। कर्ण ने घी युक्त मिट्टी को अपनी मुट्ठी में ले लिया और निचोड़ने लगे। जब कर्ण ऐसा कर रहे थे तब एक महिला की कराहती हुई आवाज सुनाई दी। जब उसने अपनी मुट्ठी खोलकर देखा तो धरती माता को पाया। पीड़ा से क्रोधित होकर धरती माता ने कर्ण की आलोचना की और शाप दिया कि जिस तरह तुमने मुझे पीड़ा दी है, उसी तरह निर्णायक युद्ध में मैं भी तुम्हारे रथ के पहिए को जकड़ लूंगी।