जानिए क्या है भारतीय वास्तु की विशेषता और इसका मानव जीवन में क्या प्रभाव पड़ता है
भारतीय वास्तु की विशेषता और इसका मानव जीवन में प्रभाव:- Features of Indian Vastu and its effect on human life: -
भारत के स्थापत्य की जड़ें यहाँ के इतिहास The architecture of India has its roots in its history, दर्शन एवं संस्कृति में निहित हैं। भारत की वास्तुकला यहाँ की परम्परागत एवं बाहरी प्रभावों का मिश्रण है।
भारतीय वास्तु की विशेषता यहाँ की दीवारों के उत्कृष्ट और प्रचुर अलंकरण में है। भित्तिचित्रों और मूर्तियों की योजना, जिसमें अलंकरण के अतिरिक्त अपने विषय के गंभीर भाव भी व्यक्त होते हैं, भवन को बाहर से कभी कभी पूर्णतया लपेट लेती है।
इनमें वास्तु का जीवन से संबंध क्या, वास्तव में आध्यात्मिक जीवन ही अंकित है। न्यूनाधिक उभार में उत्कीर्ण अपने अलौकिक कृत्यों में लगे हुए देश भर के देवी देवता, तथा युगों पुराना पौराणिक गाथाएँ, मूर्तिकला को प्रतीक बनाकर दर्शकों के सम्मुख अत्यंत रोचक कथाओं और मनोहर चित्रों की एक पुस्तक सी खोल देती हैं।
'वास्तु' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'वस्' धातु से हुई है जिसका अर्थ 'बसना' होता है which means 'to settle'। चूंकि बसने के लिये भवन की आवश्यकता होती है A building is required for shelter अतः 'वास्तु' का अर्थ 'रहने हेतु भवन' है। 'वस्' धातु से ही वास, आवास, निवास, बसति, बस्ती आदि शब्द बने हैं।
हिंदू वास्तुकौशल का विस्तार महलों, समाधियों, दुर्गों, बावड़ियों और घाटों में भी हुआ, किन्तु देश भर में बिखरे मंदिरों में यह विशेष मुखर हुआ है। गुप्तकाल (350-650 ई.) में मंदिरवास्तु के स्वरूप में स्थिरता आई। ७वीं शती के अंत में शिखर महत्वपूर्ण और अनिवार्य अंग समझा जाने लगा। मंदिरवास्तु में उत्तर की ओर आर्य शैली और दक्षिण की ओर द्रविड़ शैली स्पष्ट दीखती है। ग्वालियर के "तेली का मंदिर" (११वीं शती) और भुवनेश्वर के "बैताल देवल मंदिर"
(९वीं शती) उत्तरी शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं और सोमंगलम्, मणिमंगलम् आदि के चोल मंदिर (११वीं शती) दक्षिणी शैली का Chola temples of Nimangalam etc. (11th century) are of Southern style। किंतु ये शैलियाँ किसी भौगोलिक सीमा में बँधी नहीं हैं। चालुक्यों की राजधानी पट्टदकल के दस मंदिरों में से चार
(पप्पानाथ - 680 ई., जंबुलिंग, करसिद्धेश्वर, काशीविश्वनाथ) उत्तरी शैली के और छह (संगमेश्वर - 75 ई., विरूपाक्ष - 740 ई., मल्लिकार्जुन-740 ई., गलगनाथ-740 ई., सुनमेश्वर और जैन मंदिर) दक्षिणी शैली के हैं। 10 वीं - 11 वीं शती में पल्लव, चोल, पांड्य, चालुक्य और राष्ट्रकूट सभी राजवंशों ने दक्षिणी शैली का पोषण किया। दोनों ही शैलियों पर बौद्ध वास्तु का प्रभाव है, विशेषकर शिखरों में।