भीष्म द्वादशी की कथा और इसका धार्मिक महत्व, जाने
हिंदी पंचांग के अनुसार, माघ माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी को भीष्म अष्टमी मनाई जाती है। इसके चार दिन उपरांत भीष्म द्वादशी मनाई जाती है। धार्मिक ग्रंथों में माघ माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को श्राद्ध और द्वादशी के दिन भीष्म पितामह की पूजा करने का विधान है।
हिंदी पंचांग के अनुसार, माघ माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी को भीष्म अष्टमी मनाई जाती है। इसके चार दिन उपरांत भीष्म द्वादशी मनाई जाती है। धार्मिक ग्रंथों में माघ माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को श्राद्ध और द्वादशी के दिन भीष्म पितामह की पूजा करने का विधान है। इससे घर में सुख, समृद्धि और शांति का आगमन होता है। ऐसी मान्यता है कि द्वादशी तिथि को भीष्म पितामह की पूजा करने से पितृ प्रसन्न होकर साधक को सुख और सौभाग्य प्रदान करते हैं। आइए, भीष्म द्वादशी की कथा जानते हैं-
क्या है कथा
महाभारतकाल में रण के मैदान में कौरव की तरफ से भीष्म पितामह लड़ रहे थे। उन्हें धनुर्विद्या में महारत हासिल थी। वहीं, पांडव की तरफ से उनके प्रतिद्वंदी अर्जुन थे। हालांकि, भीष्म पितामह को परास्त करना आसान नहीं था। पांडव को भीष्म पितामह की कमजोरी का पता नहीं चल रहा था। लंबे समय तक छानबीन के पश्चात पांडवों को भीष्म पितामह की कमजोरी का पता चला। ऐसा कहा जाता है कि भीष्म पितामह किसी नारी पर प्रहार नहीं करते थे।
अगर कोई नारी भीष्म पितामह के सन्मुख हथियार लेकर खड़ी हो जाती थी, तो भीष्म पितामह प्रहार नहीं करते थे। यह जान पांडवों ने शिखंडी को भीष्म पितामह के सन्मुख खड़ा कर दिया। युद्ध स्थल पर तीर के निशान पर शिखंडी को खड़ा देखकर भीष्म पितामह ने उन पर प्रहार नहीं किया। अर्जुन पूर्व से इस अवसर की तलाश में था। उसी समय अर्जुन ने भीष्म पितामह के शरीर पर तीरों की बारिश कर दी। इससे भीष्म पितामह घायल हो गए।
हालांकि, जब भीष्म पितामह घायल हुए, तो उस समय सूर्य दक्षिणायन था। इस वजह से भीष्म पितामह ने प्राण नहीं त्यागा। बाण शैया पर आराम कर सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की। जब सूर्य उत्तरायण हुआ, तो भीष्म पितामह ने अष्टमी तिथि को अपना प्राण त्यागा। इसके चार दिन उपरांत द्वादशी तिथि को भीष्म पितामह की पूजा-उपासना की गई। कालांतर से माघ माह में शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को भीष्म पितामह की पूजा उपासना की जाती है।